Sunday, January 3, 2016

श्री कृष्ण ने चीर हरण क्यों किया

श्री कृष्ण ने चीर हरण क्यों किया 

श्री कृष्ण ने चीर हरण क्यों किया

चीर हरण के प्रसंग को लेकर किसी भी तरह की शंकाएँ नहीं होनी चाहिए.क्योकि जिस प्रकार भगवान चिन्मय है उसी प्रकार उनकी लीला भी चिन्मयी ही होती है यू तो भगवान के जन्म-कर्म की सभी लीलाएँ दिव्य होती है परन्तु व्रज की लीला,व्रज में निकुंजलीला,ओर निकुंजो में भी केवल रसमयी गोपियों के साथ होने वाली मधुर लीला,तो दिव्यातिदिव्य और सर्वगुह्तम है

यह लीला सर्वसाधारण के सम्मुख प्रकट नहीं है अंतरग लीला है और इसमें प्रवेश का अधिकारी केवल श्री गोपिजनो को ही है.विधि का अतिक्रमण करके कोई साधना के मार्ग में अग्रसर नहीं हो सकता परन्तु हदय की निष्कपटता, और सच्चा प्रेम,विधि के अतिक्रमद को भी शिथिल कर देता है.

*गोपियों श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए जो साधना कर रही थी उसमे एक त्रुटि थी.वे शास्त्र मर्यादा और परंपरागतमर्यादा का उल्लघन करके नग्न स्नान करती थी यधपि यह क्रिया अज्ञानपूर्वक ही थी तथापि भगवान के द्वारा इसका मार्जन होना आवश्यक था.भगवान ने गोपियों से इसका प्रायश्चित भी करवाया जो लोग भगवान के नाम पर विधि का उल्लंघन करते है उन्हें यह प्रसग ध्यान से पढ़ना चाहिए भगवान शास्त्र विधि का कितन आदर करते है.

श्री कृष्ण चराचर प्रकृति के एकमात्र अधीश्र्वर है समस्त क्रियाओ के कर्ता भोक्ता और साक्षी भी वही है ‘ऐसा एक भी व्यक्त या अव्यक्त पदार्थ नहीं है जो बिना किसी परदे के उनके सामने न हो’.वे सर्वव्यापक है, गोपियों के गोपो के और निखिल विश्व के वही आत्मा है. हमारी बुद्धि, हमारी द्रृष्टि, देह तक ही सीमित है इसलिए हम श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रेम को भी केवल दैहिक और कामनाकलुषित समझ बैठते है उस अपार्थिव और अप्राकृत लीला को इस प्रकृति के राज्य में घसीट लाना हमारी स्थूल वासनाओ का परिणाम है .“ चिरकाल से विषयों का ही अभ्यास होने के कारण बीच-बीच में विषयों के संस्कार व्यक्ति को सताते है.

*श्रीकृष्ण गोपियों के वस्त्रों के रूप में उनके समस्त संस्कार के आवरण अपने हाथों में लेकर पास ही कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ कर बैठ गये. गोपिया जल में थी, वे जल में सर्वव्यापक, सर्वदर्शी, भगवान से, मानो अपने को गुप्त समझ रही थी -वे मानो इस तत्व को भूल गयी थी कि श्रीकृष्ण जल में ही नहीं है,स्वयं जलस्वरुप भी वही है उनके पुराने संस्कार श्रीकृष्ण के सम्मुख जाने में बाधक हो रहे थे.

वे श्रीकृष्ण के लिए सबकुछ भूल गयी थी परन्तु अब तक अपने को नहीं भूली थी - वे चाहती थी केवल कृष्ण को,परन्तु उनके संस्कार बीच में एक पर्दा रखना चाहते थे प्रेम, प्रेमी और प्रियतम के बीच में,एक पुष्प का भी पर्दा नहीं रखना चाहता.प्रेम की प्रकृति है सर्वथा व्यवधान रहित,अबाध,और अनन्त मिलन.

गोपियों ने मानो कहा – श्रीकृष्ण हम अपने को कैसे भूले? हमारी जन्मो-जन्म की धारणायें भूलने दे. तब न. हम संसार के अगाध जल में आकंठमग्न है,जाड़े का भी कष्ट है,हम आना चाहने पर भी नहीं आ पाती है,तुम्हारी आज्ञा का पालन हम करेगी परन्तु निरावरण करके अपने सामने मत बुलाओ.साधक की यह दशा –भगवान को चाहना और साथ ही संसार को भी नहीं छोडना संस्कारो में ही उलझे रहना - बड़ी द्विविधा की दशा है.

भगवान यही सिखाते है कि संस्कारशून्य होकर, निरावरण होकर, माया का पर्दा हटाकर, मेरे पास आओ. अरे, तुम्हारे यह मोह का पर्दा तो मैने छीन लिया है तुम इस परदे के मोह में क्यों पड़ी हो ? यह पर्दा ही तो परमात्मा और जीव के बीच में बड़ा व्यवधान है परमात्मा का यह आवाहन भगवत्कृपा से जिसके अंतर्द्रश में प्रकट हो जाता है वह प्रेम में निमग्न होकर सब कुछ छोडकर श्रीकृष्ण के चरणों में दौड़ा आता है वह न तो जगत को देखता है,न अपने को. भगवान स्वयं अपनी स्मृति से जगाकर फिर जगत में लाते है उन्होंने कहा गोपियों तुम्हारा संकल्प सत्य होगा आने वाली शरद रात्रियो में हमारा पूर्ण रमण होगा. भगवान ने साधना सफल होने की अवधि निर्धारित कर दी.”

जब एक भक्त या साधक भक्ति रूपी यमुना में नहाने जाता है तो अपने कपट रूपी वस्त्र किनारे पर ही रख देता है क्योकि भक्ति में कपट का क्या काम फिर उस भक्ति में डूब जाता है जब भगवान देखते है कि ये मेरी भक्ति में उतार ही गया है तो कही वापस आकर फिर कपट रूपी वस्त्र ना पहन ले इसलिए भगवान झट से उन कपट रूपी वस्त्रों कको उठा लेते है.क्योकि ए कपट ही भगवान और भक्त के बीच का पर्दा है जो उन्हें मिलने नाही देता.ये तो कृष्ण कि कृपा है कि भक्त का इतना ध्यान रखते है.

*एक बात - बड़ी विलक्षण है भगवान के सम्मुख जाने के पहले जो वस्त्र समर्पण की पूर्णता में बाधक हो रहे थे. वही भगवान की कृपा, प्रेम, वरदान प्राप्त होने के पश्चात ‘प्रसाद’ स्वरूप हो गये इसका कारण है भगवान का सम्बन्ध - भगवान ने अपने हाथों से उन वस्त्रों को उठाकर फिर उन्हें अपने उत्तम अंग कंधे पर डाल लिया, उनका संस्पर्श पाकर वस्त्र कितने अप्राकृत रसात्मक हो गये. असल में यह संसार तभी तक बाधक है जब तक यह भगवान से सम्बन्ध और भगवान का प्रसाद नहीं हो जाता .वे वस्त्र नहीं रहे वे तो कृपा प्रसाद हो गये .इसलिए गोपियों ने पुनः वस्त्र धारण कर लिए.

!! जय जय श्री राधे !!

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