Sunday, January 3, 2016

श्री कृष्ण ने चीर हरण क्यों किया 

श्री कृष्ण ने चीर हरण क्यों किया

चीर हरण के प्रसंग को लेकर किसी भी तरह की शंकाएँ नहीं होनी चाहिए.क्योकि जिस प्रकार भगवान चिन्मय है उसी प्रकार उनकी लीला भी चिन्मयी ही होती है यू तो भगवान के जन्म-कर्म की सभी लीलाएँ दिव्य होती है परन्तु व्रज की लीला,व्रज में निकुंजलीला,ओर निकुंजो में भी केवल रसमयी गोपियों के साथ होने वाली मधुर लीला,तो दिव्यातिदिव्य और सर्वगुह्तम है

यह लीला सर्वसाधारण के सम्मुख प्रकट नहीं है अंतरग लीला है और इसमें प्रवेश का अधिकारी केवल श्री गोपिजनो को ही है.विधि का अतिक्रमण करके कोई साधना के मार्ग में अग्रसर नहीं हो सकता परन्तु हदय की निष्कपटता, और सच्चा प्रेम,विधि के अतिक्रमद को भी शिथिल कर देता है.

*गोपियों श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए जो साधना कर रही थी उसमे एक त्रुटि थी.वे शास्त्र मर्यादा और परंपरागतमर्यादा का उल्लघन करके नग्न स्नान करती थी यधपि यह क्रिया अज्ञानपूर्वक ही थी तथापि भगवान के द्वारा इसका मार्जन होना आवश्यक था.भगवान ने गोपियों से इसका प्रायश्चित भी करवाया जो लोग भगवान के नाम पर विधि का उल्लंघन करते है उन्हें यह प्रसग ध्यान से पढ़ना चाहिए भगवान शास्त्र विधि का कितन आदर करते है.

श्री कृष्ण चराचर प्रकृति के एकमात्र अधीश्र्वर है समस्त क्रियाओ के कर्ता भोक्ता और साक्षी भी वही है ‘ऐसा एक भी व्यक्त या अव्यक्त पदार्थ नहीं है जो बिना किसी परदे के उनके सामने न हो’.वे सर्वव्यापक है, गोपियों के गोपो के और निखिल विश्व के वही आत्मा है. हमारी बुद्धि, हमारी द्रृष्टि, देह तक ही सीमित है इसलिए हम श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रेम को भी केवल दैहिक और कामनाकलुषित समझ बैठते है उस अपार्थिव और अप्राकृत लीला को इस प्रकृति के राज्य में घसीट लाना हमारी स्थूल वासनाओ का परिणाम है .“ चिरकाल से विषयों का ही अभ्यास होने के कारण बीच-बीच में विषयों के संस्कार व्यक्ति को सताते है.

*श्रीकृष्ण गोपियों के वस्त्रों के रूप में उनके समस्त संस्कार के आवरण अपने हाथों में लेकर पास ही कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ कर बैठ गये. गोपिया जल में थी, वे जल में सर्वव्यापक, सर्वदर्शी, भगवान से, मानो अपने को गुप्त समझ रही थी -वे मानो इस तत्व को भूल गयी थी कि श्रीकृष्ण जल में ही नहीं है,स्वयं जलस्वरुप भी वही है उनके पुराने संस्कार श्रीकृष्ण के सम्मुख जाने में बाधक हो रहे थे.

वे श्रीकृष्ण के लिए सबकुछ भूल गयी थी परन्तु अब तक अपने को नहीं भूली थी - वे चाहती थी केवल कृष्ण को,परन्तु उनके संस्कार बीच में एक पर्दा रखना चाहते थे प्रेम, प्रेमी और प्रियतम के बीच में,एक पुष्प का भी पर्दा नहीं रखना चाहता.प्रेम की प्रकृति है सर्वथा व्यवधान रहित,अबाध,और अनन्त मिलन.

गोपियों ने मानो कहा – श्रीकृष्ण हम अपने को कैसे भूले? हमारी जन्मो-जन्म की धारणायें भूलने दे. तब न. हम संसार के अगाध जल में आकंठमग्न है,जाड़े का भी कष्ट है,हम आना चाहने पर भी नहीं आ पाती है,तुम्हारी आज्ञा का पालन हम करेगी परन्तु निरावरण करके अपने सामने मत बुलाओ.साधक की यह दशा –भगवान को चाहना और साथ ही संसार को भी नहीं छोडना संस्कारो में ही उलझे रहना - बड़ी द्विविधा की दशा है.

भगवान यही सिखाते है कि संस्कारशून्य होकर, निरावरण होकर, माया का पर्दा हटाकर, मेरे पास आओ. अरे, तुम्हारे यह मोह का पर्दा तो मैने छीन लिया है तुम इस परदे के मोह में क्यों पड़ी हो ? यह पर्दा ही तो परमात्मा और जीव के बीच में बड़ा व्यवधान है परमात्मा का यह आवाहन भगवत्कृपा से जिसके अंतर्द्रश में प्रकट हो जाता है वह प्रेम में निमग्न होकर सब कुछ छोडकर श्रीकृष्ण के चरणों में दौड़ा आता है वह न तो जगत को देखता है,न अपने को. भगवान स्वयं अपनी स्मृति से जगाकर फिर जगत में लाते है उन्होंने कहा गोपियों तुम्हारा संकल्प सत्य होगा आने वाली शरद रात्रियो में हमारा पूर्ण रमण होगा. भगवान ने साधना सफल होने की अवधि निर्धारित कर दी.”

जब एक भक्त या साधक भक्ति रूपी यमुना में नहाने जाता है तो अपने कपट रूपी वस्त्र किनारे पर ही रख देता है क्योकि भक्ति में कपट का क्या काम फिर उस भक्ति में डूब जाता है जब भगवान देखते है कि ये मेरी भक्ति में उतार ही गया है तो कही वापस आकर फिर कपट रूपी वस्त्र ना पहन ले इसलिए भगवान झट से उन कपट रूपी वस्त्रों कको उठा लेते है.क्योकि ए कपट ही भगवान और भक्त के बीच का पर्दा है जो उन्हें मिलने नाही देता.ये तो कृष्ण कि कृपा है कि भक्त का इतना ध्यान रखते है.

*एक बात - बड़ी विलक्षण है भगवान के सम्मुख जाने के पहले जो वस्त्र समर्पण की पूर्णता में बाधक हो रहे थे. वही भगवान की कृपा, प्रेम, वरदान प्राप्त होने के पश्चात ‘प्रसाद’ स्वरूप हो गये इसका कारण है भगवान का सम्बन्ध - भगवान ने अपने हाथों से उन वस्त्रों को उठाकर फिर उन्हें अपने उत्तम अंग कंधे पर डाल लिया, उनका संस्पर्श पाकर वस्त्र कितने अप्राकृत रसात्मक हो गये. असल में यह संसार तभी तक बाधक है जब तक यह भगवान से सम्बन्ध और भगवान का प्रसाद नहीं हो जाता .वे वस्त्र नहीं रहे वे तो कृपा प्रसाद हो गये .इसलिए गोपियों ने पुनः वस्त्र धारण कर लिए.

!! जय जय श्री राधे !!

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श्री सनातन जी और पारस पत्थर

श्री सनातन जी और पारस पत्थर

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सनातन जी अपना सब कुछ दान करके महाप्रभु के सेवक बन गये थे और उनकी आज्ञा से वृन्दावन मे भक्ति का प्रचार करते थे.सनातन जी एक दिन यमुना में स्नान करने के निमित्त जा रहे थे रास्ते में एक पारस पत्थर का टुकडा़ इन्हें पडा़ मिला, इन्होने उसे वही धूलि में ढक दिया.

अकस्मात उसी दिन एक ब्राहाण उनके पास आकर धन की याचना करने लगा इन्होने बहुत कहा -भाई हम भिक्षुक है माँगकर खाते है,भला हमारे पास धन कहाँ है किन्तु वह कहने लगा – महाराज! मैंने धन की कामना से ही अनेको वर्षो तक शिव जी की आराधना की,उन्होंने संतुष्ट होकर रात्रि के समय स्वप्न में मुझसे कहा -हे ब्राहाण तू जिस इच्छा से मेरा पूजन कर रहा है वह इच्छा तेरी वृन्दावन में सनातन जी गोस्वामी के समीप जाने से पूरी होगी बस उन्ही के स्वपन से में आप की शरण में आया हूँ.

इस पर सनातन जी को उस पारस पत्थर की याद आई उन्होंने कहा -अच्छी बात है मेरे साथ यमुना किनारे आओ,दूर से ही इशारा करते हुए उन्होंने कहा -यहाँ कही पारस पत्थर है उस ब्राहमण ने बहुत ढूँढा,थोड़ी देर बाद उसे पारस पत्थर मिल गया उसी समय उसने एक लोहे का टुकड़े से उसे छुआकर उसकी परीक्षा की देखते ही देखते लोहा सोना बन गया ब्राहाण प्रसन्न होकर घर चल दिया.

वह आधे रास्ते तक पँहुचा की उसका विचार एकदम बदल गया उसने सोचा जो महापुरुष घर-घर जाकर टुकडे माँगकर खाता है और संसार की इतनी बहुमूल्य समझी जाने वाली इस मणि को स्पर्श तक नहीं करता अवश्य ही उसके पास इस असाधारण पत्थर से बढकर भी कोई और वस्तु है मै तो उनसे उसी को प्राप्त करुँगा !

इस पारस को देकर तो उन्होंने मुझे बहलाया है, यह सोच कर वह लौटकर फिर इनके समीप आया और चरणों में गिरकर रो-रोकर अपनी मनोव्यथा सुनाई उसके सच्चे वैराग्य को देखकर इन्होने पारस को यमुना जी में फिकवा दिया और उसे अमूल्य हरिनाम का उपदेश किया जिससे वह कुछ काल में ही संत बन गया.

किसी ने सच ही कहा है –
“ पारस में अरु संत में, संत अधिक कर मान |
वह लोहा सोना करै यह करै आपु समान ||”

!! जय जय श्री राधे !

श्री सनातन जी और पारस पत्थर

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Friday, January 1, 2016

श्री कृष्ण की पीठ के दर्शन क्यों नहीं करने चाहिए

श्री कृष्ण की पीठ के दर्शन क्यों नहीं करने चाहिए

जब भी कृष्ण भगवान के मंदिर जाएं तो यह जरुर ध्यान रखें कि कृष्ण जी कि मूर्ति की पीठ के दर्शन ना करें। दरअसल पीठ के दर्शन न करने के संबंध में भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण की एक कथा प्रचलित है। कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण जरासंध से युद्ध कर रहे थे तब जरासंध का एक साथी असूर कालयवन भी भगवान से युद्ध करने आ पहुंचा। कालयवन श्रीकृष्ण के सामने पहुंचकर ललकारने लगा। तब श्रीकृष्ण वहां से भाग निकले। इस तरह रणभूमि से भागने के कारण ही उनका नाम रणछोड़ पड़ा।

जब श्रीकृष्ण भाग रहे थे तब कालयवन भी उनके पीछे-पीछे भागने लगा। इस तरह भगवान रणभूमि से भागे क्योंकि कालयवन के पिछले जन्मों के पुण्य बहुत अधिक थे और कृष्ण किसी को भी तब तक सजा नहीं देते जब कि पुण्य का बल शेष रहता है। कालयवन कृष्णा की पीठ देखते हुए भागने लगा और इसी तरह उसका अधर्म बढऩे लगा क्योंकि भगवान की पीठ पर अधर्म का वास होता है और उसके दर्शन करने से अधर्म बढ़ता है।

जब कालयवन के पुण्य का प्रभाव खत्म हो गया कृष्ण एक गुफा में चले गए। जहां मुचुकुंद नामक राजा निद्रासन में था। मुचुकुंद को देवराज इंद्र का वरदान था कि जो भी व्यक्ति राजा को निंद से जगाएगा और राजा की नजर पढ़ते ही वह भस्म हो जाएगा। कालयवन ने मुचुकुंद को कृष्ण समझकर उठा दिया और राजा की नजर पढ़ते ही राक्षस वहीं भस्म हो गया।

अत: भगवान श्री हरि की पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए क्योंकि इससे हमारे पुण्य कर्म का प्रभाव कम होता है और अधर्म बढ़ता है। कृष्णजी के हमेशा ही मुख की ओर से ही दर्शन करें। 

श्री कृष्ण की पीठ के दर्शन क्यों नहीं करने चाहिए

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श्री कृष्ण के महान रहस्य

श्री कृष्ण के महान रहस्य

1. श्रीकृष्ण का रंग

जनश्रुति अनुसार कुछ लोग श्रीकृष्ण की त्वचा का रंग काला और ज्यादातर लोग श्याम रंग का मानते हैं। श्याम रंग अर्थात कुछ-कुछ काला और कुछ-कुछ नीला। मतलब काले जैसा नीला। जैसा सूर्यास्त के बाद जब दिन अस्त होने वाला रहता है तो आसमान का रंग काले जैसा नीला हो जाता है।

जनश्रुति अनुसार उनका रंग न तो काला और न ही नीला था। यह भी कि उनका रंग काला मिश्रित ‍नीला भी नहीं था। उनकी त्वचा का रंग श्याम रंग भी नहीं था। दरअसल उनकी त्वचा का रंग मेघ श्यामल (Cloud Shyamal) था। अर्थात काला, नीला और सफेद मिश्रित रंग।

 
2. श्रीकृष्ण की गंध

प्रचलित जनश्रुति अनुसार माना जाता है कि उनके शरीर से मादक गंध निकलती रहती थी। इस गंध को वे अपने गुप्त अभियानों में छुपाने का उपक्रम करते थे। यही खूबी द्रौपदी में भी थी। द्रौपदी के शरीर से भी सुगंध निकलती रहती थी जो लोगों को आकर्षित करती थी। सभी इस सुगंध की दीशा में देखने लगते थे। इसीलिए अज्ञातवास के समय द्रौपदी को चंदन, उबटन और इत्रादि का कार्य किया जिसके चलते उनको सैरंध्री कहा जाने लगा था।

माना जाता है कि श्रीकृष्‍ण के शरीर से निकलने वाली गंधी गोपिकाचंदन और कुछ-कुछ रातरानी की सुगंध से मिलती जुलती थी। कुछ लोग इसे अष्टगंध भी कहते है |
 

3. श्रीकृष्ण के शरीर के गुण

कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण की देह कोमल अर्थात लड़कियों के समान मृदु थी लेकिन युद्ध के समय उनकी देह विस्तृत और कठोर हो जाती थी। जनश्रुति अनुसार ऐसा माना जाता है कि ऐसा इसलिए हो जाता था क्योंकि वे योग और कलारिपट्टू विद्या में पारंगत थे।
इसका मतलब यह कि श्रीकृष्ण अपनी देह को किसी भी प्रकार का बनाना जानते थे। इसीलिए स्त्रियों के समान दिखने वाला उनका कोमल शरीर युद्ध के समय अत्यंत ही कठोर दिखाई देने लगता था। यही गुण कर्ण और द्रौपदी के शरीर में भी था।


4. सदा जवान बने रहे श्रीकृष्ण

भगवान कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ था। उनका बचपन गोकुल, वृंदावन, नंदगाव, बरसाना आदि जगहों पर बीता। द्वारिका को उन्होंने अपना निवास स्थान बनाया और सोमनाथ के पास स्थित प्रभास क्षेत्र में उन्होंने देह छोड़ दी। दरअसल भगवान कृष्ण इसी प्रभाव क्षेत्र में अपने कुल का नाश देखकर बहुत व्यथित हो गए थे। वे तभी से वहीं रहने लगे थे।
एक दिन वे एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे तभी किसी बहेलिये ने उनको हिरण समझकर तीर मार दिया। यह तीर उनके पैरों में जाकर लगा और तभी उन्होंने देह त्यागने का निर्णय ले लिया। एक दिन वे इसी प्रभाव क्षेत्र के वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे योगनिद्रा में लेटे थे, तभी ‘जरा’ नामक एक बहेलिए ने भूलवश उन्हें हिरण समझकर विषयुक्त बाण चला दिया, जो उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्रीकृष्ण ने इसी को बहाना बनाकर देह त्याग दी।
जनश्रुति अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने जब देहत्याग किया तब उनकी देह के केश न तो श्वेत थे और ना ही उनके शरीर पर किसी प्रकार से झुर्रियां पड़ी थी। अर्थात वे 119 वर्ष की उम्र में भी युवा जैसे ही थे।


5. कृष्ण की द्वारिका

भगवान कृष्ण ने गुजरात के समुद्री तट पर अपने पूर्वजों की भूमि पर एक भव्य नगर का निर्माण किया था। कुछ विद्वान कहते हैं कि उन्होंने पहले से उजाड़ पड़ी कुशस्थली को फिर से निर्मित करवाया था। माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी द्वारिका में 6 महीने से ज्यादा नहीं रहे।

6. कृष्ण की द्वारिका को किसने किया था नष्ट?

श्रीकृष्ण की इस नगरी को विश्‍वकर्मा और मयदानव ने मिलकर बनाया था। विश्वकर्मा देवताओं के और मयदानव असुरों के इंजीनियर थे। दोनों ही राम के काल में भी थे। इतिहासकार मानते हैं कि द्वारिका जल में डूबने से पहले नष्ट की गई थी। किसने नष्ट किया होगा द्वारिका को? यह सवाल अभी भी बना हुआ है। हालांकि समुद्र के भीतर द्वारिका के अवशेष ढूंढ लिए गए हैं। वहां उस समय के जो बर्तन मिले, हैं वो 1528 ईसा पूर्व से 3000 ईसा पूर्व के बताए जाते हैं।

 

7. ईसा मसीह पर श्रीकृष्ण और बुद्ध का प्रभाव

हालांकि यह अभी भी शोध का विषय है। फिर भी अब तक जीतने भी लोगों ने इस पर शोध किया उनका कहना यही है कि ईसा मसीह ने भारत का भ्रमण किया था और वे कश्मीर से लेकर जगन्नाथ मंदिर तक गए थे।
उन्होंने कश्मीर के एक बौद्ध मठ में रहकर ध्यान साधना की थी। यहीं पर उनकी समाधि भी है। शोधकर्ता मानते हैं कि श्रीकृष्ण का ईसा मसीह के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा।


8. मार्शल आर्ट के जन्मदाता थे श्रीकृष्ण

भारतीय परंपरा और जनश्रुति अनुसार भगवान श्रीकृष्‍ण ने ही मार्शल आर्ट का अविष्कार किया था। दरअसल पहले इसे कालारिपयट्टू (kalaripayattu) कहा जाता था। इस विद्या के माध्यम से ही उन्होंने चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया था तब उनकी उम्र 16 वर्ष की थी। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया था।
जनश्रुतियों के अनुसार श्रीकृष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास उसी का एक नृत्य रूप है। कालारिपयट्टू विद्या के प्रथम आचार्य श्रीकृष्ण को ही माना जाता है। हालांकि इसके बाद इस विद्या को अगस्त्य मुनि ने प्रचारित किया था।
इस विद्या के कारण ही ‘नारायणी सेना’ भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी। श्रीकृष्ण ने ही कलारिपट्टू की नींव रखी, जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई। बोधिधर्मन के कारण ही यह विद्या चीन, जापान आदि बौद्ध राष्ट्रों में खूब फली-फूली। आज भी यह विद्या केरल और कर्नाटक में प्रचलित है।

9. परशुरामजी ने दिया था सुदर्शन चक्र

श्रीकृष्ण के पास यूं तो कई प्रकार के दिव्यास्त्र थे। लेकिन सुदर्शन चक्र मिलने के बाद सभी ओर उनकी साख बढ़ गई थी।
शिवाजी सावंत की किताब ‘युगांधर अनुसार’ श्रीकृष्ण को भगवान परशुराम ने सुदर्शन चक्र प्रदान किया था, तो दूसरी ओर वे पाशुपतास्त्र चलाना भी जानते थे। पाशुपतास्त्र शिव के बाद श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास ही था। इसके अलावा उनके पास प्रस्वपास्त्र भी था, जो शिव, वसुगण, भीष्म के पास ही था।


10. शिव और कृष्ण का जीवाणु युद्ध

प्रचलित मान्यता अनुसार कृष्ण ने असम में बाणासुर और भगवान शिव से युद्ध के समय ‘माहेश्वर ज्वर’ के विरुद्ध ‘वैष्णव ज्वर’ का प्रयोग कर विश्व का प्रथम ‘जीवाणु युद्ध’ लड़ा था। हालांकि यह शोध का विषय हो सकता है।
युद्ध का कारण : कृष्ण से प्रद्युम्न का और प्रद्युम्न से अनिरुद्ध का जन्म हुआ। प्रद्युम्न के पुत्र तथा कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध की पत्नी के रूप में उषा की ख्याति है। अनिरुद्ध की पत्नी उषा शोणितपुर के राजा वाणासुर की कन्या थी। अनिरुद्ध और उषा आपस में प्रेम करते थे। उषा ने अनिरुद्ध का हरण कर लिया था। वाणासुर को अनिरुद्ध-उषा का प्रेम पसंद नहीं था। उसने अनिरुद्ध को बंधक बना लिया था। वाणासुर को शिव का वरदान प्राप्त था। भगवान शिव को इसके कारण श्रीकृष्ण से युद्ध करना पड़ा था। अंत में देवताओं के समझाने के बाद यह युद्ध रुका था।

11. श्री कृष्ण के युद्ध हथियार

भगवान श्रीकृष्ण 64 कलाओं में दक्ष थे। एक ओर वे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे तो दूसरी ओर वे द्वंद्व युद्ध में भी माहिर थे। इसके अलावा उनके पास कई अस्त्र और शस्त्र थे। उनके धनुष का नाम ‘सारंग’ था। उनके खड्ग का नाम ‘नंदक’, गदा का नाम ‘कौमौदकी’ और शंख का नाम ‘पांचजञ्य’ था, जो गुलाबी रंग का था। श्रीकृष्ण के पास जो रथ था उसका नाम ‘जैत्र’ दूसरे का नाम ‘गरुढ़ध्वज’ था। उनके सारथी का नाम दारुक था और उनके अश्वों का नाम शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक था।

12. कृष्ण की प्रेमिका और पत्नियां

कृष्ण के बारे में अक्सर यह कहां जाता है कि उनकी 16 हजार पटरानियां थी। लेकिन यह तथ्‍य गलत है। उनकी मात्र 8 पत्नियां थीं।
कृष्ण की जिन 16 हजार पटरानियों के बारे में कहा जाता है दरअसल वे सभी भौमासर जिसे नरकासुर भी कहते हैं उसके यहां बंधक बनाई गई महिलाएं थीं जिनको श्रीकृष्‍ण मुक्त कराया था। ये महिलाएं किसी की मां थी, किसी की बहिन तो किसी की पत्नियां थी जिनको भौमासुर अपहरण करके ले गया था।


13. मृत लोगों को जीवित कर दिया था श्रीकृष्ण ने

ऋषि सांदिपनी को जब गुरुदक्षिणा मांगने के लिए कहा गया तब गुरु ने कहा कि मेरे पुत्र को एक असुर उठा ले गया है आप उसे आपस ले आएं तो बड़ी कृपा होगी। श्रीकृष्ण ने गुरु के पुत्र को कई जगह ढूंढ और अंत में वे समुद्र के किनारे चले गए जहां से उन्हें पता चला कि असुर उसे समुद्र में ले गया है तो श्रीकृष्ण भी वहीं पहुंच गया। बाद में पता चला कि उसे तो यमराज ले गए हैं तब श्रीकृष्ण ने यमराज से गुरु के पुत्र को हासिल कर लिया और गुरु दक्षिणा पूर्ण की।

इस तरह अर्जुन की 4 पत्नियां थीं- द्रौपदी, सुभद्रा, उलूपी और चित्रांगदा। द्रौपदी से श्रुतकर्मा और सुभद्रा से अभिमन्यु, उलूपी से इरावत, चित्रांगदा से वभ्रुवाहन नामक पुत्रों की प्राप्ति हुई।
अभिमन्यु का विवाह महाराज विराट की पुत्री उत्तरा से हुआ। महाभारत युद्ध में अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हुए। जब महाभारत का युद्ध चल रहा था, तब उत्तरा गर्भवती थी। उसके पेट में अभिमन्यु का पुत्र पल रहा था। द्रोण पुत्र अश्वत्थामा ने यह संकल्प लेकर ब्रह्मास्त्र छोड़ा था कि पांडवों का वंश नष्ट हो जाए।

द्रोण पुत्र अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र प्रहार से उत्तरा ने मृत शिशु को जन्म दिया था किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने अभिमन्यु-उत्तरा पुत्र को ब्रह्मास्त्र के प्रयोग के बाद भी फिर से जीवित कर दिया। यही बालक आगे चलकर राजा परीक्षित नाम से प्रसिद्ध हुआ। परीक्षित के प्रतापी पुत्र हुए जन्मेजय।
ऐसे कई उदाहरण हैं जबकि भगवान कृष्ण ने लोगों को फिर से जीवित कर दिया। भीम पुत्र घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की गर्दन कटी होने के बावजूद श्रीकृष्ण ने उसे महाभारत युद्ध की समाप्ति तक जीवित रखा।


13. श्रीकृष्ण का दिल

हिन्दू धर्म के बेहद पवित्र स्थल और चार धामों में से एक जगन्नाथ पुरी की धरती को भगवान विष्णु का स्थल माना जाता है। जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी एक बेहद रहस्यमय कहानी प्रचलित है।

स्थानीय मान्यताओं अनुसार कहते हैं कि इस मूर्ति के भीतर भगवान कृष्ण का दिल का एक पिंड रखा हुआ है जिसमें ब्रह्मा विराजमान हैं। दरअसल, जनश्रुति के अनुसार जब श्रीकृष्ण की मृत्यु हुई तब पांडवों ने उनके शरीर का दाह-संस्कार कर दिया लेकिन कृष्ण का दिल (पिंड) जलता ही रहा। ईश्वर के आदेशानुसार पिंड को पांडवों ने जल में प्रवाहित कर दिया। उस पिंड ने लट्ठे का रूप ले लिया। राजा इन्द्रद्युम्न, जो कि भगवान जगन्नाथ के भक्त थे, को यह लट्ठा मिला तो उन्होंने इसे जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्थापित कर दिया। उस दिन से लेकर आज तक वह लट्ठा भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर है। हर 12 वर्ष के अंतराल के बाद जगन्नाथ की मूर्ति बदलती है, लेकिन यह लट्ठा उसी में रहता है। हालांकि यह शोध का विषय हो सकता है।
 

14. नहीं हुआ था यदुवंश का नाश

महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब युधिष्ठर का राजतिलक हो रहा था तब कौरवों की माता गांधारी ने महाभारत युद्ध के लिए श्रीकृष्ण को दोषी ठहराते हुए शाप दिया की जिस प्रकार कौरवों के वंश का नाश हुआ है ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश होगा।

शाप के चलते श्रीकृष्ण द्वारिका लौटकर यदुवंशियों को लेकर प्रभास क्षेत्र में आ गए। कुछ दिनों बाद महाभारत-युद्ध की चर्चा करते हुए सात्यकि और कृतवर्मा में विवाद हो गया। सात्यकि ने गुस्से में आकर कृतवर्मा का सिर काट दिया। इससे उनमें आपसी युद्ध भड़क उठा और वे समूहों में विभाजित होकर एक-दूसरे का संहार करने लगे। इस लड़ाई में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न और मित्र सात्यकि समेत लगभग सभी यदुवंशी मारे गए थे, केवल बब्रु और दारूक ही बचे रह गए थे।


15. वानर राज बाली ही था जरा बहेलिया

पौराणिक मान्यताओं अनुसार प्रभु ने त्रेता में राम के रूप में अवतार लेकर बाली को छुपकर तीर मारा था। कृष्णावतार के समय भगवान ने उसी बाली को जरा नामक बहेलिया बनाया और अपने लिए वैसी ही मृत्यु चुनी, जैसी बाली को दी थी।

 

श्री कृष्ण के महान रहस्य

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श्री कृष्ण की 10 बड़ी लड़ाईयां

श्री कृष्ण की 10 बड़ी लड़ाईयां

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में कई युद्धों का संचालन किया। कहना चाहिए कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में युद्ध ही युद्ध किए। श्रीकृष्ण की जो रसिक बिहारी की छवि ‍निर्मित हुई, वह मध्यकाल के भक्त कवियों द्वारा निर्मित की गई है, क्योंकि वे अपने आराध्य को हिंसक मानने के लिए तैयार नहीं थे।
मध्यकाल के भक्तों ने श्रीकृष्ण के संबंध में कई मनगढ़ंत बातों का प्रचार किया और महाभारत के कृष्ण की छवि को पूर्णत: बदलकर रख दिया। उन्होंने कृष्ण के साथ राधा का नाम जोड़कर दोनों को प्रेमी और प्रेमिका बना दिया। उनका यह रूप आज भी जनमानस में व्यापक रूप से प्रचलित है।
खैर, हालांकि भगवान कृष्ण ने यूं तो कई असुरों का वध किया जिनमें पूतना, शकटासुर, कालिया, यमुलार्जन, धेनुक, प्रलंब, अरिष्ठ आदि। लेकिन हम आपको बताएंगे कि श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में कौन-कौन से युद्ध लड़े या उनका संचालन किया। उनमें से भी प्रमुख कौन से हैं। आओ जानते हैं, श्रीकृष्ण के प्रमुख 10 युद्धों के बारे में जानकारी…

युद्ध के बारे में जानने से पहले जानते हैं श्रीकृष्ण की शक्ति के स्रोत :

श्रीकृष्ण की शक्ति के स्रोत : भगवान श्रीकृष्ण 64 कलाओं में दक्ष थे। एक ओर वे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे तो दूसरी ओर वे द्वंद्व युद्ध में भी माहिर थे। इसके अलावा उनके पास कई अस्त्र और शस्त्र थे। उनके धनुष का नाम ‘सारंग’ था। उनके खड्ग का नाम ‘नंदक’, गदा का नाम ‘कौमौदकी’ और शंख का नाम ‘पांचजञ्य’ था, जो गुलाबी रंग का था। श्रीकृष्ण के पास जो रथ था उसका नाम ‘जैत्र’ दूसरे का नाम ‘गरुढ़ध्वज’ था। उनके सारथी का नाम दारुक था और उनके अश्वों का नाम शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक था।

श्रीकृष्ण के पास कई प्रकार के दिव्यास्त्र थे। भगवान परशुराम ने उनको सुदर्शन चक्र प्रदान किया था, तो दूसरी ओर वे पाशुपतास्त्र चलाना भी जानते थे। पाशुपतास्त्र शिव के बाद श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास ही था। इसके अलावा उनके पास प्रस्वपास्त्र भी था, जो शिव, वसुगण, भीष्म के पास ही था।

1. कंस से युद्ध

कंस से युद्ध तो श्रीकृष्‍ण ने जन्म लेते ही शुरू कर दिया था। कंस के कारण ही तो श्रीकृष्ण को ताड़का, पूतना, शकटासुर आदि का बचपन में ही वध करना पड़ा। भगवान कृष्ण का मामा था कंस। वह अपने पिता उग्रसेन को राजपद से हटाकर स्वयं शूरसेन जनपद का राजा बन बैठा था। कंस बेहद क्रूर था। कंस अपने पूर्व जन्म में ‘कालनेमि’ नामक असुर था जिसे भगवान विष्णु अवतार श्रीराम ने मारा था।

कंस के काका शूरसेन का मथुरा पर राज था और शूरसेन के पुत्र वसुदेव का विवाह कंस की बहन देवकी से हुआ था। कंस अपनी चचेरी बहन देवकी से बहुत स्नेह रखता था, लेकिन एक दिन वह देवकी के साथ रथ पर कहीं जा रहा था, तभी आकाशवाणी सुनाई पड़ी- ‘जिसे तू चाहता है, उस देवकी का 8वां बालक तुझे मार डालेगा।’ बस इसी भविष्यवाणी ने कंस का दिमाग घुमा दिया।

कंस ने अपनी बहन और बहनोई वसुदेव को जेल में डाल दिया। बाद में कंस ने 1-1 करके देवकी के 6 बेटों को जन्म लेते ही मार डाला। 7वें गर्भ में श्रीशेष (अनंत) ने प्रवेश किया था। भगवान विष्णु ने श्रीशेष को बचाने के लिए योगमाया से देवकी का गर्भ ब्रजनिवासिनी वसुदेव की पत्नी रोहिणी के उदर में रखवा दिया। तदनंतर 8वें बेटे की बारी में श्रीहरि ने स्वयं देवकी के उदर से पूर्णावतार लिया। कृष्ण के जन्म लेते ही माया के प्रभाव से सभी संतरी सो गए और जेल के दरवाजे अपने आप खुलते गए। वसुदेव मथुरा की जेल से शिशु कृष्ण को लेकर नंद के घर पहुंच गए।

बाद में कंस को जब पता चला तो उसके मंत्रियों ने अपने प्रदेश के सभी नवजात शिशुओं को मारना प्रारंभ कर दिया। बाद में उसे कृष्ण के नंद के घर होने के पता चला तो उसने अनेक आसुरी प्रवृत्ति वाले लोगों से कृष्ण को मरवाना चाहा, पर सभी कृष्ण तथा बलराम के हाथों मारे गए।

तब योजना अनुसार कंस ने एक समारोह के अवसर पर कृष्ण तथा बलराम को आमंत्रित किया। वह वहीं पर कृष्ण को मारना चाहता था, किंतु कृष्ण ने उस समारोह में कंस को बालों से पकड़कर उसकी गद्दी से खींचकर उसे भूमि पर पटक दिया और इसके बाद उसका वध कर दिया। कंस को मारने के बाद देवकी तथा वसुदेव को मुक्त किया और उन्होंने माता-पिता के चरणों में वंदना की।

 

2. जरासंध से युद्ध

कंस वध के बाद जरासंध से तो कृष्ण ने कई बार युद्ध किया। जरासंध कंस का ससुर था इसलिए उसने श्रीकृष्ण को मारने के लिए मथुरा पर कई बार आक्रमण किया। जरासंध मगध का अत्यंत क्रूर एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। हरिवंश पुराण के अनुसार उसने काशी, कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, पांडय, सौबिर, मद्र, कश्मीर और गांधार के राजाओं को परास्त कर सभी को अपने अधीन बना लिया था। इसी कारण पुराणों में जरासंध की बहुत चर्चा मिलती है।

जरासंध ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद (मथुरा) पर एक बार नहीं, कई बार चढ़ाई की, लेकिन हर बार वह असफल रहा। पुराणों के अनुसार जरासंध ने 18 बार मथुरा पर चढ़ाई की। 17 बार वह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासक कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।

जरासंध के कई साथी राजा थे- कामरूप का राजा दंतवक, चेदिराज शिशुपाल, कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र रुक्मी, काध अंशुमान तथा अंग, बंग, कोशल, दषार्ण, भद्र, त्रिगर्त आदि के राजा थे। इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवनदेश का राजा भगदत्त, सौवीरराज, गांधार का राजा सुबल, नग्नजित का राजा मीर, दरद देश का राजा गोभर्द आदि। महाभारत युद्ध से पहले भीम ने जरासंध के शरीर को 2 हिस्सों में विभक्त कर उसका वध कर दिया था।


3. कालयवन से युद्ध

पुराणों के अनुसार जरासंध ने 18 बार मथुरा पर चढ़ाई की। 17 बार वह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासक कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।

कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश के नाम संदेश भेजा और युद्ध के लिए एक दिन का समय दिया। श्रीकृष्ण ने उत्तर में भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूं लड़ाएं? कालयवन ने स्वीकार कर लिया। ऐसा कहा जाता है कि इसी युद्ध के बाद श्रीकृष्ण का नाम रणछोड़ पड़ा।

कृष्ण और कालयवन का युद्ध हुआ और कृष्‍ण रण की भूमि छोड़कर भागने लगे, तो कालयवन भी उनके पीछे भागा। भागते-भागते कृष्ण एक गुफा में चले गए। कालयवन भी वहीं घुस गया। गुफा में कालयवन ने एक दूसरे मनुष्य को सोते हुए देखा। कालयवन ने उसे कृष्ण समझकर कसकर लात मार दी और वह मनुष्य उठ पड़ा।

उसने जैसे ही आंखें खोली और इधर-उधर देखने लगे, तब सामने उसे कालयवन दिखाई दिया। कालयवन उसके देखने से तत्काल ही जलकर भस्म हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले, वे इक्ष्वाकु वंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे, जो तपस्वी और प्रतापी थे।

4. कृष्ण और अर्जुन का युद्ध

कहते हैं कि एक बार श्रीकृष्ण और अर्जुन में द्वंद्व युद्ध हुआ था। यह श्रीकृष्ण के जीवन का भयंकर द्वंद्व युद्ध था। माना जाता है कि यह युद्ध कृष्ण की बहन सुभद्रा की प्रतिज्ञा के कारण हुआ था।

अंत में इस युद्ध में दोनों ने अपने-अपने सबसे विनाशक शस्त्र क्रमशः सुदर्शन चक्र और पाशुपतास्त्र निकाल लिए थे, लेकिन देवताओं के हस्तक्षेप करने से ही वे दोनों शांत हुए थे।

5. शिव और कृष्ण का जीवाणु युद्ध

माना जाता है कि कृष्ण ने असम में बाणासुर और भगवान शिव से युद्ध के समय ‘माहेश्वर ज्वर’ के विरुद्ध ‘वैष्णव ज्वर’ का प्रयोग कर विश्व का प्रथम ‘जीवाणु युद्ध’ लड़ा था।

बलि के 10 पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र का नाम बाण था। बाण ने घोर तपस्या के फलस्वरूप शिव से अनेक दुर्लभ वर प्राप्त किए थे। वह शोणितपुर पर राज्य करता था। बाणासुर को भगवान शिव ने अपना पुत्र माना था इसलिए उन्होंने उसकी जान बचाने के लिए श्रीकृष्ण से युद्ध किया था। बाणासुर अहंकारी, महापापी और अधर्मी था।

कहते हैं कि इस युद्ध में श्रीकृष्ण ने शिव पर जृंभास्त्र का प्रयोग किया था। इस युद्ध में बाणासुर की जान बचाने की लिए स्वयं मां पार्वती जब सामने आकर खड़ी हो गईं, तब श्रीकृष्ण ने बाणासुर को अभयदान दिया।


6. नरकासुर से युद्ध

नरकासुर को भौमासुर भी कहा जाता है। कृष्ण अपनी आठों पत्नियों के साथ सुखपूर्वक द्वारिका में रह रहे थे। एक दिन स्वर्गलोक के राजा देवराज इंद्र ने आकर उनसे प्रार्थना की, ‘हे कृष्ण! प्रागज्योतिषपुर के दैत्यराज भौमासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। क्रूर भौमासुर ने वरुण का छत्र, अदिति के कुंडल और देवताओं की मणि छीन ली है और वह त्रिलोक विजयी हो गया है।’

इंद्र ने कहा, ‘भौमासुर ने पृथ्वी के कई राजाओं और आमजनों की अति सुन्दर कन्याओं का हरण कर उन्हें अपने यहां बंदीगृह में डाल रखा है। कृपया आप हमें बचाइए प्रभु।’

इंद्र की प्रार्थना स्वीकार कर के श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा को साथ लेकर गरूड़ पर सवार हो प्रागज्योतिषपुर पहुंचे। वहां पहुंचकर भगवान कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से सबसे पहले मुर दैत्य सहित मुर के 6 पुत्रों- ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण का संहार किया।

मुर दैत्य का वध हो जाने का समाचार सुन भौमासुर अपने अनेक सेनापतियों और दैत्यों की सेना को साथ लेकर युद्ध के लिए निकला। भौमासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को सारथी बनाया और घोर युद्ध के बाद अंत में कृष्ण ने सत्यभामा की सहायता से उसका वध कर डाला।

 

7. महाभारत युद्ध

महाभारत का युद्ध 22 नवंबर 3067 ईसा पूर्व हुआ था। तब श्रीकृष्ण 55 या 56 वर्ष के थे। हालांकि कुछ विद्वान मानते हैं कि उनकी उम्र 83 वर्ष की थी। महाभारत युद्ध के 36 वर्ष बाद उन्होंने देह त्याग दी थी। इसका मतलब 119 वर्ष की आयु में उन्होंने देहत्याग किया था। आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईपू में हुआ। श्रीकृष्ण ने यह युद्ध नहीं लड़ा था लेकिन उन्होंने इस युद्ध का संचालन जरूर किया था।

माना जाता है कि महाभारत युद्ध में एकमात्र जीवित बचा कौरव युयुत्सु था और 24,165 कौरव सैनिक लापता हो गए थे। लव और कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए, ‍जो महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। कलियुग के आरंभ होने से 6 माह पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल 14 को महाभारत का युद्ध का आरंभ हुआ था, जो 18 दिनों तक चला था। इस युद्ध में ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था।


8. चाणूर और मुष्टिक से युद्ध

श्रीकृष्‍ण ने 16 वर्ष की उम्र में चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया था। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया था। कहते हैं कि यह मार्शल आर्ट की विद्या थी। पूर्व में इस विद्या का नाम कलारिपट्टू था।

जनश्रुतियों के अनुसार श्रीकृष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास उसी का एक नृत्य रूप है। कलारिपट्टू विद्या के प्रथम आचार्य श्रीकृष्ण को ही माना जाता है। इसी कारण ‘नारायणी सेना’ भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी।

श्रीकृष्ण ने ही कलारिपट्टू की नींव रखी, जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई। बोधिधर्मन के कारण ही यह विद्या चीन, जापान आदि बौद्ध राष्ट्रों में खूब फली-फूली।


9. कृष्ण-जाम्बवंत युद्ध

भगवान श्रीकृष्ण का जाम्बवंत से द्वंद्व युद्ध हुआ था। जाम्बवंत रामायण काल में थे और उनको अजर-अमर माना जाता है। उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम जाम्बवती था। जाम्बवंतजी से भगवान श्रीकृष्ण को स्यमंतक मणि के लिए युद्ध करना पड़ा था। उन्होंने मणि के लिए नहीं, बल्कि खुद पर लगे मणि चोरी के आरोप को असिद्ध करने के लिए जाम्बवंत से युद्ध करना पड़ा था। दरअसल, यह मणि भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के पिता सत्राजित के पास थी और उन्हें यह मणि भगवान सूर्य ने दी थी।

सत्राजित ने यह मणि अपने देवघर में रखी थी। वहां से वह मणि पहनकर उनका भाई प्रसेनजित आखेट के लिए चला गया। जंगल में उसे और उसके घोड़े को एक सिंह ने मार दिया और मणि अपने पास रख ली। सिंह के पास मणि देखकर जाम्बवंत ने सिंह को मारकर मणि उससे ले ली और उस मणि को लेकर वे अपनी गुफा में चले गए, जहां उन्होंने इसको खिलौने के रूप में अपने पुत्र को दे दी। इधर सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर आरोप लगा दिया कि यह मणि उन्होंने चुराई है।

तब श्रीकृष्ण को यह मणि हासिल करने के लिए जाम्बवंत से युद्ध करना पड़ा। बाद में जाम्बवंत जब युद्ध में हारने लगे तब उन्होंने अपने प्रभु श्रीराम को पुकारा और उनकी पुकार सुनकर श्रीकृष्ण को अपने राम स्वरूप में आना पड़ा। तब जाम्बवंत ने समर्पण कर अपनी भूल स्वीकारी और उन्होंने मणि भी दी और श्रीकृष्ण से निवेदन किया कि आप मेरी पुत्री जाम्बवती से विवाह करें।


10. पौंड्रक-कृष्ण युद्ध

चुनार देश का प्राचीन नाम करुपदेश था। वहां के राजा का नाम पौंड्रक था। कुछ मानते हैं कि पुंड्र देश का राजा होने से इसे पौंड्रक कहते थे। कुछ मानते हैं कि वह काशी नरेश ही था। चेदि देश में यह ‘पुरुषोत्तम’ नाम से सुविख्यात था। इसके पिता का नाम वसुदेव था। इसलिए वह खुद को वासुदेव कहता था। यह द्रौपदी स्वयंवर में उपस्थित था। कौशिकी नदी के तट पर किरात, वंग एवं पुंड्र देशों पर इसका स्वामित्व था। यह मूर्ख एवं अविचारी था।

पौंड्रक को उसके मूर्ख और चापलूस मित्रों ने यह बताया कि असल में वही परमात्मा वासुदेव और वही विष्णु का अवतार है, मथुरा का राजा कृष्ण नहीं। कृष्ण तो ग्वाला है। पुराणों में उसके नकली कृष्ण का रूप धारण करने की कथा आती है।

एक दिन उसने भगवान कृष्ण को यह संदेश भी भेजा था कि ‘पृथ्वी के समस्त लोगों पर अनुग्रह कर उनका उद्धार करने के लिए मैंने वासुदेव नाम से अवतार लिया है। भगवान वासुदेव का नाम एवं वेषधारण करने का अधिकार केवल मेरा है। इन चिह्रों पर तेरा कोई भी अधिकार नहीं है। तुम इन चिह्रों एवं नाम को तुरंत ही छोड़ दो, वरना युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।’

बहुत समय तक श्रीकृष्ण उसकी बातों और हरकतों को नजरअंदाज करते रहे, बाद में उसकी ये सब बातें अधिक सहन नहीं हुईं। उन्होंने प्रत्युत्तर भेजा, ‘तेरा संपूर्ण विनाश करके, मैं तेरे सारे गर्व का परिहार शीघ्र ही करूंगा।’

युद्ध के समय पौंड्रक ने शंख, चक्र, गदा, धनुष, वनमाला, रेशमी पीतांबर, उत्तरीय वस्त्र, मूल्यवान आभूषण आदि धारण किया था एवं वह गरूड़ पर आरूढ़ था। नाटकीय ढंग से युद्धभूमि में प्रविष्ट हुए इस ‘नकली कृष्ण’ को देखकर भगवान कृष्ण को अत्यंत हंसी आई। इसके बाद युद्ध हुआ और पौंड्रक का वध कर श्रीकृष्ण पुन: द्वारिका चले गए।

बाद में बदले की भावना से पौंड्रक के पुत्र सुदक्षण ने कृष्ण का वध करने के लिए मारण-पुरश्चरण किया, लेकिन द्वारिका की ओर गई वह आग की लपट रूप कृत्या ही पुन: काशी में आकर सुदक्षणा की मौत का कारण बन गई। उसने काशी नरेश पुत्र सुदक्षण को ही भस्म कर दिया।

 

श्री कृष्ण की 10 बड़ी लड़ाईयां

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