Saturday, November 28, 2015

कृष्ण के वृंदावन छोड़ने के बाद राधा का क्या हुआ?

कृष्ण के वृंदावन छोड़ने के बाद राधा का क्या हुआ?


जब-जब श्रीकृष्ण का नाम लिया गया है, ऐसा कभी हुआ नहीं कि राधा जी का नाम ना लिया गया हो। श्रीकृष्ण को अमूमन भक्त राधे-कृष्ण कहकर ही पुकारते हैं। क्योंकि यह दो शब्द, यह दो नाम एक-दूसरे के लिए ही बने हैं और इन्हें कोई अलग नहीं कर सकता। 
लेकिन तब क्या हुआ था जब श्रीकृष्ण को राधा को छोड़कर जाना पड़ा?
मंदिरों में केवल श्रीकृष्ण की अकेले मूर्ति देखना कम पाया जाता है, अमूमन हम उनकी मूर्ति के साथ राधा की मूर्ति जरूर देखते हैं। आप स्वयं वृंदावन के किसी भी मंदिर में प्रवेश कर लीजिए, वहां आपको राधे-कृष्ण की ही मूर्ति के दर्शन होंगे....
कृष्ण से राधा को और राधा से कृष्ण को कोई जुदा नहीं कर सकता, यह एक गहरा रिश्ता है 
लेकिन जब वास्तव में श्रीकृष्ण अपनी प्रिय राधा को छोड़कर मथुरा चले गए थे तब राधा का क्या हुआ?
 कृष्ण के बिना उन्होंने अपना जीवन कैसे बिताया?
 क्या जीवन बिताया भी था या...
यह सवाल काफी गहरे हैं लेकिन उससे भी गहराई में जाने के बाद इन सवालों का सही उत्तर सामने आया है। यह सभी जानते हैं कि श्रीकृष्ण का बचपन वृंदावन की गलियों में बीता। नटखट नंदलाल अपनी लीलाओं से सभी को प्रसन्न करते, कुछ को परेशान भी करते लेकिन कृष्ण के साथ ही तो वृंदावन में खुशियां थीं।
बड़े होकर कृष्ण ने अपनी बांसुरी की मधुर ध्वनि से अनेकों गोपियों का दिल जीता, लेकिन सबसे अधिक यदि कोई उनकी बांसुरी से मोहित होता तो वह थीं राधा। परंतु राधा से कई अधिक स्वयं कृष्ण, राधा के दीवाने थे।
क्या आप जानते हैं कि राधा, कृष्ण से उम्र में पांच वर्ष बड़ी थीं। वे वृंदावन से कुछ दूर रेपल्ली नामक गांव में रहती थीं लेकिन रोज़ाना कृष्ण की मधुर बांसुरी की आवाज़ से खींची चली वृंदावन पहुंच जाती थी।
कृष्ण भी राधा से मिलने जाते
जब भी कृष्ण बांसुरी बजाते तो सभी गोपियां उनके आसपास एकत्रित हो जातीं, उस मधुर संगीत को सुनते हुए सभी मग्न हो जाते। और इसी का फायदा पाकर कई बार कृष्ण चुपके से वहां से निकल जाते और राधा से मिलने उनके गांव पहुंच जाते। लेकिन धीरे-धीरे वह समय निकट आ रहा था जब कृष्ण को वृंदावन को छोड़ मथुरा जाना था।
जब भी कृष्ण बांसुरी बजाते तो सभी गोपियां उनके आसपास एकत्रित हो जातीं, उस मधुर संगीत को सुनते हुए सभी मग्न हो जाते। और इसी का फायदा पाकर कई बार कृष्ण चुपके से वहां से निकल जाते और राधा से मिलने उनके गांव पहुंच जाते। 
लेकिन धीरे-धीरे वह समय निकट आ रहा था जब कृष्ण को वृंदावन को छोड़ मथुरा जाना था।
वृंदावन में शोक का माहौल उत्पन्न हो गया, इधर कान्हा के घर में मां यशोदा तो परेशान थी हीं लेकिन कृष्ण की गोपियां भी कुछ कम उदास नहीं थीं। दोनों को लेने के लिए कंस द्वारा रथ भेजा गया, जिसके आते ही सभी ने उस रथ के आसपास घेरा बना लिया यह सोचकर कि वे कृष्ण को जाने नहीं देंगे।
उधर कृष्ण को राधा की चिंता सताने लगी, वे सोचने लगे कि जाने से पहले एक बार राधा से मिल लें इसलिए मौका पाते ही वे छिपकर वहां से निकल गए। फिर मिली उन्हें राधा, जिसे देखते ही वे कुछ कह ना सके। राधा-कृष्ण के इस मिलन की कहानी अद्भुत है।
दोनों ना तो कुछ बोल रहे थे, ना कुछ महसूस कर रहे थे, बस चुप थे। राधा कृष्ण को ना केवल जानती थी, वरन् मन और मस्तिष्क से समझती भी थीं। कृष्ण के मन में क्या चल रहा है, वे पहले से ही भांप लेती, इसलिए शायद दोनों को उस समय कुछ भी बोलने की आवश्यक्ता नहीं पड़ी।
अंतत: कृष्ण, राधा को अलविदा कह वहां से लौट आए और आकर गोपियों को भी वृंदावन से उन्हें जाने की अनुमति देने के लिए मना लिया।
अखिरकार वृंदावन कृष्ण के बिना सूना-सूना हो गया, ना कोई चहल-पहल थी और ना ही कृष्ण की लीलाओं की कोई झलक। बस सभी कृष्ण के जाने के ग़म में डूबे हुए थे। परंतु दूसरी ओर राधा को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, लेकिन क्यों! क्योंकि उनकी दृष्टि में कृष्ण कभी उनसे अलग हुए ही नहीं थे।
शारीरिक रूप से जुदाई मिलना उनके लिए कोई महत्व नहीं रखता था, यदि कुछ महत्वपूर्ण था तो राधा-कृष्ण का भावनात्मक रूप से हमेशा जुड़ा रहना। कृष्ण के जाने के बाद राधा पूरा दिन उन्हीं के बारे में सोचती रहती और ऐसे ही कई दिन बीत गए। लेकिन आने वाले समय में राधा की जिंदगी क्या मोड़ लेने वाली थी,
 उन्हें इसका अंदाज़ा भी नहीं था।
माता-पिता के दबाव में आकार राधा को विवाह करना पड़ा और विवाह के बाद अपना जीवन, संतान तथा घर-गृहस्थि के नाम करना पड़ा। लेकिन दिल के किसी कोने में अब भी वे कृष्ण का ही नाम लेती थीं। दिन बीत गए, वर्ष बीत गए और समय आ गया था जब राधा काफी वृद्ध हो गई थी। फिर एक रात वे चुपके से घर से निकल गई और घूमते-घूमते कृष्ण की द्वारिका नगरी में जा पहुंची।
वहां पहुंचते ही उसने कृष्ण से मिलने के लिए निवेदन किया, लेकिन पहली बार में उन्हें वह मौका प्राप्त ना हुआ। परंतु फिर आखिरकार उन्होंने काफी सारे लोगों के बीच खड़े कृष्ण को खोज निकाला। राधा को देखते ही कृष्ण के खुशी का ठिकाना नहीं रहा, लेकिन तब ही दोनों में कोई वार्तालाप ना हुई।
क्योंकि वह मानसिक संकेत अभी भी उपस्थित थे, उन्हें लफ़्ज़ों की आवश्यक्ता नहीं थी। कहते हैं राधा कौन थी, यह द्वारिका नगरी में कोई नहीं जानता था। राधा के अनुरोध पर कृष्ण ने उन्हें महल में एक देविका के रूप में नियुक्त करा दिया, वे दिन भर महल में रहती, महल से संबंधित कार्यों को देखती और जब भी मौका मिलता दूर से ही कृष्ण के दर्शन कर लेती।
लेकिन फिर भी ना जाने क्यों राधा में धीरे-धीरे एक भय पैदा हो रहा था, जो बीतते समय के साथ बढ़ता जा रहा था। उन्हें फिर से कृष्ण से दूर हो जाने का डर सताता रहता, उनकी यह भवनाएं उन्हें कृष्ण के पास रहने न देतीं। साथ ही बढ़ती उम्र ने भी उन्हें कृष्ण से दूर चले जाने को मजबूर कर दिया। अंतत: एक शाम वे महल से चुपके से निकल गई और ना जाने किस ओर चल पड़ी।
वे नहीं जानती थीं कि वे कहां जा रही हैं, आगे मार्ग पर क्या मिलेगा, बस चलती जा रही थी। परंतु कृष्ण तो भगवान हैं, वे सब जानते थे इसलिए अपने अंतर्मन वे जानते थे कि राधा कहां जा रही है। फिर वह समय आया जब राधा को कृष्ण की आवश्यकता पड़ी, वह अकेली थी और बस किसी भी तरह से कृष्ण को देखना चाहती थी और यह तमन्ना उत्पन्न होते ही कृष्ण उनके सामने आ गए।
कृष्ण को अपने सामने देख राधा अति प्रसन्न हो गई। परंतु दूसरी ओर वह समय निकट था जब राधा पाने प्राण त्याग कर दुनिया को अलविदा कहना चाहती थी। कृष्ण ने राधा से प्रश्न किया और कहा कि वे उनसे कुछ मांगे लेकिन राधा ने मना कर दिया।
कृष्ण ने फिर से कहा कि जीवन भर राधा ने कभी उनसे कुछ नहीं मांगा, इसलिए राधा ने एक ही मांग की और वह यह कि ‘वे आखिरी बार कृष्ण को बांसुरी बजाते देखना चाहती थी’। कृष्ण ने बांसुरी ली और बेहद मधुर धुन में उसे बजाया, बांसुरी बजाते-बजाते राधा ने अपने शरीर का त्याग किया और दुनिया से चली गई। उनके जाते ही कृष्ण ने अपनी बांसुरी तोड़ दी और कोसों दूर फेंक दी।.

कृष्ण के वृंदावन छोड़ने के बाद राधा का क्या हुआ?

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गीता के कुछ महत्वपूर्ण श्लोक

गीता के कुछ महत्वपूर्ण श्लोक





१. हम चिंता और शोक से कैसे छुटकारा पा सकते हैं ? - भ.गी. 2.22

२. शांति प्राप्त करने के लिए स्थिर मन और अलौकिक बुद्धि कैसे प्राप्त किया जाये ? - भ.गी.2.66

३. भगवान को अर्पित भोजन ही क्यों खाया जाये ? - भ.गी. 3.31

४. अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करते हुए भक्ति कैसे की जाये ? - भ.गी. 3.43

५. जीवन की पूर्णता को कैसे पाया जाये ? - भ.गी. 4.9

६. धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को कैसे पाएं ? - भ.गी. 4.11

७. आध्यात्मिक गुरु का आश्रय कैसे लें ? - भ.गी. 4.34

८. क्या एक पापी भी दुखों के सागर को पार सकता है ? - भ.गी. 4.36

९. मनुष्य दुखों के जाल में क्यों फंसा हुआ है ? - भ.गी. 5.22

१०. शान्ति का सूत्र क्या है ? - भ.गी. 5.29

११. मन किसका मित्र है और किसका शत्रु ? - भ.गी. 6.6

१२. क्या मन को नियंत्रित करके शांति प्राप्त की जा सकती है ? - भ.गी. 6.7

१३. चंचल मन को कैसे नियंत्रित करें ? - भ.गी. 6.35

१४. पूर्ण ज्ञान क्या है ? - भ.गी. 7.2

१५. मुक्ति कैसे पाएं ? - भ.गी. 7.7

१६. माया को वश में करने का रहस्य क्या है ? - भ.गी. 7.14

१७. पाप-कर्म क्या हैं ? उन्हें कैसे हटाया जाये ? - भ.गी. 9.2

१८. हमारा परम-लक्ष्य क्या होना चाहिए ? - भ.गी. 9.18

१९. क्या कोई व्यक्ति अपनी इच्छा के ग्रह पर पहुँच सकता है ? - भ.गी. 9.25

२०. क्या भगवान हमारे द्वारा अर्पित भोजन ग्रहण करते हैं ? - भ.गी. 9.26

२१. इस भौतिक संसार में आनंद पाने के माध्यम क्या हैं ? - भ.गी. 9.34

२२. इस मनुष्य जन्म की पूर्णता क्या है ? - भ.गी. 10.10

२३. हमारे हृदयों में संचित मल को कैसे साफ़ किया जाये ? - भ.गी. 10.11

२४. परम पुरुषोत्तम भगवान कौन हैं ? - भ.गी. 10.12-13

२५. भगवान कृष्ण ने अर्जुन को विश्व-रूप क्यों दिखाया ? - भ.गी. 11.1

२६. भगवद-गीता का सार क्या है और हमारे दुखों का कारण क्या है ? - भ.गी. 11.55

२७. रजोगुण एवं तमोगुण पर विजय कैसे प्राप्त करें ? - भ.गी. 14.26

२८. क्या हम भगवान को देख, सुन और उनसे बात कर सकते हैं ? - भ.गी. 15.7

२९. जीव शरीर छोड़ते समय साथ में क्या ले जाता है ? - भ.गी. 15.8

३०. भगवान को कैसे पाया जाये ? - भ.गी. 18.66

हरे कृष्ण

गीता के कुछ महत्वपूर्ण श्लोक

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हरे कृष्ण जप किस प्रकार करें

हरे कृष्ण जप किस प्रकार करें


जप करने के समय स्मरण रखने वाली कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण बातें
:


* पवित्र हरिनाम को भी अर्च-विग्रह और पवित्र धाम के समान ही गुणनिधि समझना ।

* जप भी राधा-कृष्ण की पूजा है, इसलिए हमें पूर्ण उद्यम के साथ जप करना चाहिए ।

* भगवान कृष्ण हमारे भाव और प्रयासों के अनुरूप ही आदान-प्रदान करते हैं । यह हम में जितना अधिक होगा, भगवान भी उतना अधिक प्रतिदान करेंगे । भगवान का प्रतिदान वास्तव में कई गुना अधिक होता है क्योंकि इस सम्बन्ध को प्रगाढ़ करने के लिए वे  हमसे कही अधिक आतुर रहते हैं ।  

* जप कोई प्रक्रिया नहीं है यह एक सम्बन्ध है । जब हम जप करते हैं तो हम भगवान से टूटे हुए सम्बन्ध को ठीक कर रहे होते हैं । इसलिए जब हम भगवान को पुकारते हैं तो पश्चाताप और समर्पण भाव से पुकारना चाहिए । समर्पण भरी पुकार में इस बात का पश्चाताप हो कि भगवान से विमुख होकर हमने कितने जन्म यूँही व्यर्थ गवाँ दिए ।

* अपराध-सहित जप और अपराध-रहित जप में मात्र हमारे सच्चे प्रयास का अंतर है । गंभीर प्रयास ही प्रेम-भक्ति की सीढ़ी है । जब हम अपराधों से बचने का निरंतर प्रयास करते हैं तो वे स्वतः ही समाप्त होने लगते है ।

* मालाओं की गिनती से अधिक महत्वपूर्ण उनकी गुणवत्ता है । अगर गुणवत्ता अच्छी है तो गिनती स्वतः ही बढ़ जाएगी । अगर गिनती अधिक है तो कई बार गुणवत्ता में गिरावट आती है ।

* जप करते समय कभी भी यह विचार मन में न लाएं की “मुझे करना पड़ रहा है”, बल्कि विचार ऐसे होने चाहिए की “मैं जप करना चाहता हूँ”। अगर आपको यह लगे की जप “करना पड़ रहा है” तो बेहतर होगा कि उस समय आप जप ना ही करें । भगवान कृष्ण से सम्बन्ध बनाने के लिए कोई आपको बाध्य न करे आप स्वयं ही इस सम्बन्ध को बढाने के लिए आतुर होने चाहिए, तभी भगवान प्रतिदान करेंगे ।

* जब आप जप कर रहे हों तब केवल जप ही करें । मन का जप में उपस्थित रहना ही जप के प्रति न्याय है । अगर आप सचमुच गंभीर होंगे तो वातावरण स्वतः ही अनुकूल बन जायेगा और आपको जप के लिए अधिक समय भी मिलेगा ।

* जप ही आपका दिनभर में सबसे प्रिय कार्य हो । जब समय मिले तब जप कर लिया । और जब जप कर रहे हों तो सम्पूर्ण संसार प्रतीक्षा कर सकता है ।

* माया और कृष्ण, दोनों एक ही समय पर नहीं पाये जा सकते । जब हम भौतिक विकर्षणों को अधिक महत्त्व देते हैं तब भगवान कृष्ण हमारे जीवन और जप दोनों से विलुप्त हो जाते हैं ।  इसलिए जब जप कर रहे हों हो कृष्ण को चुनें और माया को उसके हर रूप में अस्वीकार कर दें ।

* कृष्ण और माया के चुनाव में कोई अति-मुर्ख ही माया को चुनेगा । वैज्ञानिक मापदंड के अनुसार भी कृष्ण ही माया से अधिक बेहतर चुनाव हैं । कृष्ण के साथ गंभीरता से किये गए कम प्रयास में भी अधिक लाभ मिलता है और माया के साथ लाभ की कोई गारंटी नहीं है, और फल पूर्व-कर्मों पर निर्भर रहता है ।

* पवित्र हरिनाम का जप हमारे भगवद्धाम जाने के लिए, टिकट के समान है । यह हमारी भगवद्धाम जाने की गंभीरता पर निर्भर करता है कि हम शीघ्र पहुँचना चाहते हैं या कई जन्मों के बाद आराम से ।

* भगवान कृष्ण के नाम, माया से हमारी रक्षा करते हैं । वास्तव में बाधा लगने वाली शारीरिक और मानसिक असुविधाएं जप करने वाले गंभीर भक्त के सामने कुछ नहीं है ।

* कृष्ण हमारी गंभीरता से आकर्षित होते हैं और जप करते समय आने वाले क्रोध, निराशा, ईर्ष्या इत्यादि बुरे विचारों से हमारी रक्षा करते हैं ।

* कई लोग धन, ज्ञान और कई भौतिक लाभों के लिए देवी-देवताओं की पूजा करते हैं । वह एक व्यापार मात्र है, आप उनके लिए कुछ कीजिये और वे आपके लिए । परन्तु कृष्ण से हमारा सम्बन्ध अलग प्रकार का है, यह सम्बन्ध मात्र लेन-देन से बढ़कर और भी अधिक प्रगाढ़ है । वे हमें अहैतुकी कृपा और प्रेम प्रदान करते हैं और हम भी वही करते हैं ।


सदैव जपिए,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे ॥
हरे कृष्ण !!



हरे कृष्ण जप किस प्रकार करें

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Thursday, November 26, 2015

रुक्मणि की प्रेम कथा

रुक्मणि की प्रेम कथा


श्रीकृष्ण के जीवन में जिस दूसरी महिला की अहम भूमिका रही, वह उनकी पहली पत्नी रुक्मणि थीं। राजकुमारी रुक्मणि विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री थीं। जब कृष्ण बाहु युद्ध के महारथी चाणूर के साथ अखाड़े में उतरे थे, उस समय रुक्मणि मथुरा में ही थीं। वह उन पलों की भी साक्षी थीं, जब कृष्ण ने मथुरा के राजा कंस को झटके में ढेर कर दिया था। मथुरा राज्य में कंस के अत्याचारी शासन को खत्म करने और समता स्थापित करने की ओर श्रीकृष्ण का यह पहला कदम था। सोलह वर्ष की उम्र में जब कृष्ण ने वृंदावन छोड़ा था, उससे पहले ही सारे संसार में उनकी रासलीला की कहानियां मशहूर हो गई थीं।
लोग कृष्ण के नृत्य और वृन्दावन में होने वाली खूबसूरत घटनाओं का वर्णन लोक गीतों के माध्यम से करते थे और बताते थे कि कैसे एक साधारण से गांव के लोग कृष्ण की मौजूदगी में एक साथ इकठ्ठा होकर आनंद और स्नेह से सराबोर हो जाते हैं। रुक्मणि ने बचपन से ही से सब बातें सुन रखी थी। जब कृष्ण ने कंस का वध किया था तो रुक्मणि लगभग बारह साल की थीं। उसी समय से उन्होंने अपना मन बना लिया था कि वह कृष्ण के अलावा किसी और से शादी नहीं करेंगी। उस समय कृष्ण एक मामूली ग्वाले से ज्यादा कुछ नहीं थे, जिसने एक बहादुरी का काम किया था, लेकिन रुक्मणि एक बहुत बड़े साम्राज्य की राजकुमारी थीं। फिर भी वो कृष्ण से विवाह करना चाहती थीं। उन्होंने कृष्ण के सामने अपने प्रेम का इजहार करने के लिए कई तरीके भी आजमाए। कृष्ण भी इस बात से अनजान नहीं थे, क्योंकि उन्हें हर किसी की भावनाओं और इरादों के बारे में पता होता था।

अगले कुछ साल कृष्ण ब्रह्मचारी बनकर घूमते रहे। रुक्मणि ने यह तय कर लिया कि जब भी वे विदर्भ पहुंचकर ‘भिक्षांदेहि’ कहेंगे तो वह उन्हें भिक्षा देने वालों में सबसे आगे होंगी। वो कृष्ण के साथ-साथ घूमती रहीं, हालांकि वह उनके झुंड से अलग रहती थीं। कृष्ण जहां भी जाते, वह वहां पहुंचतीं और उन्हें भिक्षा देतीं। वह उन्हें भिक्षा देने वाली अकेली महिला नहीं थीं लेकिन सबसे खास जरूर थीं, क्योंकि वो कृष्ण से विवाह करना चाहती थीं। ऐसे कई लोग थे जो कृष्ण का पीछा करने की कोशिश करते थे और चाहते थे कि कैसे भी उनकी नजर में आ जाएं। उनके नीले जादू ने लोगों को पागल बना दिया था।
कृष्ण को इसमें बड़ा मजा आता था लेकिन उन्होंने अपने इस जादू का दुरुपयोग कभी नहीं किया। वह बस यही सोचते थे कि लोगों को कैसे ऊपर उठाया जाए। आप चाहे किसी आदमी से प्यार करें या किसी औरत से या फिर किसी गधे से या किसी और से, जब किसी के मन में प्रेम पैदा हो जाता है तो कोई भी समझदार इंसान उसे विकसित ही करना चाहता है, उसे खत्म करना नहीं चाहता। संभव है कि किसी तरह की भावनात्मक विवशता के चलते वह अपने प्यार की दिशा मोडऩे की कोशिश करे, लेकिन उसे खत्म कभी नहीं करना चाहेगा। इसी तरह कृष्ण भी अपने इस नीले जादू को जारी रखते थे। वे लोगों को प्रेम करने के लिए प्रेरित तो करते थे लेकिन साथ ही यह कोशिश भी करते थे कि लोग उस प्यार को एक सही दिशा दे सकें जिससे वह उनके लिए लाभकारी हो सके। वह यह नहीं चाहते थे कि लोगों के मन में निराशा और ईष्र्या आए कि वे उन्हें पा नहीं सके। उनके जीवन में न जाने कितनी ही ऐसी स्थितियां आईं, जब उन्होंने एक स्त्री के स्नेह को ज्यादा सकारात्मक और उपयोगी बनाने के लिए उसे दूसरी दिशा देने की कोशिश की ताकि वह अपने प्रेम को मात्र एक शारीरिक इच्छा न समझे और खुद को एक उच्च संभावना में रूपांतरित कर सके। उनकी इस कोशिश का एक उदाहरण राजकुमारी रुक्मणि भी थीं।
जब भी रुक्मणि को किसी त्योहार या किसी उत्सव का बहाना मिलता तो वह कृष्ण की एक झलक पाने और उनसे बात करने की आस में मथुरा पहुंच जातीं। कृष्ण ने अपनी ओर उनके इस दृढ़ आकर्षण को महसूस किया था, लेकिन वह उनके इस प्रकार के प्रेम को बढ़ावा नहीं देना चाहते थे। वह जानते थे कि रुक्मणि एक राजकुमारी थीं, जबकि वो खुद कहीं के राजा नहीं थे। चूंकि रुक्मणि से विवाह का प्रश्न ही नहीं उठता था, इसलिए वह उनकी इस तरह की प्रेम भावना को और भडक़ाना नहीं चाहते थे। वह हमेशा उनके प्रेम की आग को शांत करने की कोशिश करते थे, लेकिन साथ ही वह उस प्रेम को पूरी तरह कुचलना भी नहीं चाहते थे। इसलिए रुक्मणि के इस प्रेम की ओर बस इतना ही ध्यान दिया कि उसे सही दिशा में मोड़ा जा सके। लेकिन रुक्मणि का निश्चय दृढ़ था।

जब कृष्ण के मित्र उद्धव विदर्भ आए तो रुक्मणि ने अपना निर्णय उन्हें बताते हुए कहा- ‘चाहे जो हो जाए, मैं केवल कृष्ण से ही विवाह करूंगी। अगर उन्होंने मुझसे शादी करने से मना किया तो मैं आग में कूदकर जान दे दूंगी।’ उधर रुक्मणि का भाई रुक्मी उनकी शादी चेदि के राजा शिशुपाल से कराना चाहता था, क्योंकि यह एक बहुत अच्छी संधि होती। रुक्मी की महत्वाकांक्षाएं बहुत बढ़ चुकी थीं। वह अपनी बहन रुक्मणि का विवाह शिशुपाल से कराकर एक बहुत महत्वपूर्ण गठबंधन बनाना चाहता था। खुद वह राजा जरासंध की पोती से विवाह करना चाहता था। चूंकि जरासंध बूढ़ा हो गया था, इसलिए रुक्मी ने अंदाजा लगाया कि अगर जरासंध अपने पूर्वजों की दुनिया में चला जाए तो आसपास के क्षेत्र में वही सबसे शक्तिशाली व्यक्ति होगा और इस तरह वह इस पूरे साम्राज्य का राजा बन जाएगा। उसकी इस मंशा को पूरा करने में रुक्मणि एक बहुत खास मोहरा साबित हो सकती थीं।
रुक्मणि को यह सब पता चल गया। वह उन लड़कियों में से नहीं थीं, जो महिला होने के नाते शांत रह जाएं। रुक्मणि ने इतनी तीव्रता के साथ अपनी बात रखी कि वे समझ ही नहीं पाए कि आखिर उनके साथ क्या किया जाए।
कई बार उनके भाई ने उन्हें जबरदस्ती झुकाने की सोची, लेकिन वह ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया क्योंकि रुक्मणि बहुत तेज स्वभाव की थीं। विदर्भ से लौटकर उद्धव ने कृष्ण को बताया कि रुक्मणि केवल आपसे ही विवाह करने की जिद पर अड़ी हुई हैं और अगर ऐसा नहीं हुआ तो वह खुद को खत्म कर लेंगी। उद्धव की यह बात सुनकर कृष्ण मुस्कुराए और बोले – ‘मैंने न जाने कितनी ही राजकुमारियों को यही कहते सुना है, लेकिन बाद में सबने किसी और से शादी कर ली, और अब वे सब खुशी-खुशी जी रही हैं। ऐसा कहना लड़कियों के लिए आम बात है लेकिन बाद में वे सभी अपने लिए योग्य वर से शादी करके उनके साथ आराम से रहने लगती हैं।

कृष्ण की बात सुनकर उद्धव बोले – ‘नहीं, वासुदेव तुम गलत समझ रहे हो। वो बहुत जिद्दी हैं और अपनी मर्जी की मालकिन हैं।’ इस पर कृष्ण ने पूछा, ‘इतनी दृढ़ संकल्प वाली महिला मुझ जैसे ग्वाले से विवाह क्यों करेगी भला? वह अपने लिए कोई सुंदर सा राजकुमार ढूंढ लें और उससे विवाह कर लें।’ लेकिन रुक्मणि ने अपना इरादा नहीं बदला और वह इस पर अड़ी रहीं।

जब कृष्ण और बलराम को जरासंध के आगमन को टालने और नगर को जलने से बचाने के लिए मथुरा छोडऩा पड़ रहा था तो रुक्मणि के दादा कैशिक ने उन दोनों को आसरा दिया था। ऐसा उन्होंने इसलिए किया, क्योंकि रुक्मणि ने उन्हें धमकी दी थी कि अगर उन्होंने उन दोनों जरूरतमंदों की मदद नहीं की तो वह उनके सामने ही अपनी जान दे देंगी। ऐसे में कैशिक के सामने इन दोनों लडक़ों को सहारा देने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था। कुछ समय बाद रुक्मणि के लिए एक स्वयंवर का आयोजन किया गया। स्वयंवर एक ऐसा आयोजन होता था, जिसमें राजकुमारी अपना मनपसंद वर चुन सकती थी। हालांकि यह स्वयंवर दिखावे के लिए किया गया था क्योंकि इसमें केवल उन्हीं राजाओं को आमंत्रित किया गया था, जो रुक्मणि के योग्य ही नहीं थे। सबकुछ पहले से तय था, क्योंकि किसी भी हालत में रुक्मणि की शादी शिशुपाल से होनी थी। यह सुनिश्चित करने के लिए खुद जरासंध भी वहां मौजूद था।
जब यह योजना बन रही रही थी, तो रुक्मणि ने अपने पिता और भाई से झगड़ा करके ये सब रोकने की हर संभव कोशिश की, लेकिन वे दोनों नहीं माने।

रुक्मणि की प्रेम कथा

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राधा- कृष्णा बियोग

राधा- कृष्णा बियोग

देवी रूक्मिणी का जन्म अष्टमी तिथि को कृष्ण पक्ष में हुआ था और श्री कृष्ण का जन्म भी कृष्ण पक्ष में अष्टमी तिथि को हुआ था व देवी राधा वह भी अष्टमी तिथि को अवतरित हुई थी. राधा जी के जन्म में और देवी रूक्मिणी के जन्म में एक अन्तर यह है कि देवी रूक्मिणी का जन्म कृष्ण पक्ष में हुआ था और राधा जी का शुक्ल पक्ष में. राधा जी को नारद जी के श्राप के कारण विरह सहना पड़ा और देवी रूक्मिणी से कृष्ण जी की शादी हुई. राधा और रूक्मिणी यूं तो दो हैं परंतु दोनों ही माता लक्ष्मी के ही अंश हैं.

रामचरित मानस के बालकाण्ड में जैसा कि तुलसी दास जी ने लिखा है कि नारद जी को यह अभिमान हो गया था कि उन्होंने काम पर विजय प्राप्त कर लिया है. नारद जी की परीक्षा लेने के लिए भगवान विष्णु ने अपनी माया से एक नगर का निर्माण किया. उस नगर के राजा ने अपनी रूपवती पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया. स्वयंर में नारद मुनि भी पहुचे और कामदेव के वाणों से घायल होकर राजकुमारी को देखकर मोहित हो गये.

राजकुमारी से विवाह की इच्छा लेकर वह भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे निवेदन करने लगे कि प्रभु मुझे आप अपना सुन्दर रूप प्रदान करें क्योंकि मुझे राजकुमारी से प्रेम हो गया है और मैं उससे विवाह की इच्छा रखता हूं. नारद जी के वचनों को सुनकर भगवान मुस्कुराए और कहा तुम्हें विष्णु रूप देता हूं. जब नारद विष्णु रूप लेकर स्वयंवर में पहुंचे तब उस राजकुमारी ने विष्णु जी के गले में वर माला डाल दी. नारद जी वहां से दु:खी होकर चले आ रहे थे. मार्ग में उन्हें एक जलाशय दिखा जिसमें उन्होंने चेहरा देखा तो समझ गये कि विष्णु भगवान ने उनके साथ छल किया है और उन्हें वानर रूप दिया है.

नारद क्रोधित होकर वैकुण्ड पहुंचे और भगवान को बहुत भला बुरा कहा और उन्हें पत्नी का वियोग का वियोग सहना होगा यह श्राप दिया. नारद जी के इस श्राप की वजह से रामावतार में भगवान रामचन्द्र जी को सीता का वियोग सहना पड़ा था और कृष्णावतार में देवी राधा का.

वास्तव में देवी राधा और रूक्मिणी एक ही हैं अत: रूक्मिणी अष्टमी का महत्व वही है जो राधाष्टमी का. जो इनकी उपासना करता है उन्हें देवी लक्ष्मी की उपासना का फल प्राप्त होता है. श्री कृष्ण ने देवी रूक्मिणी के प्रेम और पतिव्रत को देखते हुए उन्हें वरदान दिया कि जो व्यक्ति पूरे वर्ष कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन आपका व्रत और पूजन करेगा और पौष मास की कृष्ण अष्टमी को व्रत कर के उसका उद्यापन यानी समापन करेगा उसे कभी धनाभाव का सामना नहीं करना होगा. जो आपका भक्त होगा उसे देवी लक्ष्मी की कृपा भी प्राप्त होगी.

राधा- कृष्णा बियोग

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Monday, November 23, 2015

तुलसी पौराणिक कथा

तुलसी पौराणिक कथा

वृंदा कैसे बनी तुलसी, पढ़ें रोचक पौराणिक कथा

पौराणिक काल में एक थी लड़की। नाम था वृंदा। राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था। वृंदा बचपन से ही भगवान विष्णु जी की परम भक्त थी। बड़े ही प्रेम से भगवान की पूजा किया करती थी। जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया,जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था।वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी।एक बार देवताओं और दानवों में युद्ध हुआ जब
जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा -स्वामी आप युद्ध पर जा रहे हैं आप जब तक युद्ध में रहेगें मैं पूजा में बैठकर आपकी जीत के लिए अनुष्ठान करुंगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जातेमैं अपना संकल्प नही छोडूगीं। जलंधर तो युद्ध में चले गए और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गई। उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके सारे देवता जब हारने लगे तो भगवान विष्णु जी के पास गए।
सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि-वृंदा मेरी परम भक्त है मैं उसके साथ छल नहीं कर सकता पर देवता बोले – भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं हैअब आप ही हमारी मदद कर सकते हैं।
भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृन्दा के महल में पहुंच गए जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा,
वे तुरंत पूजा में से उठ गई और उनके चरण छू लिए। जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओं ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काटकर अलग कर दिया। उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पड़ा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है? उन्होंने पूछा – आप कौन हैं जिसका स्पर्श मैंने किया, तब भगवान अपने रूप में आ गए पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई।
उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ, भगवान तुंरत पत्थर के हो गए। सभी देवता हाहाकार करने लगे। लक्ष्मी जी रोने लगीं और प्रार्थना करने लगीं तब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया
औरअपने पति का सिर लेकर वे सती हो गई।
🌿उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा- आज से इनका नाम तुलसी है,
और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जाएगा
और मैं बिना तुलसी जी के प्रसाद स्वीकार नहीं करुंगा। तबसे तुलसी जी की पूजा सभी करने लगे और
तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है। देवउठनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है। 
तुलसी महारानी की जय
हरि हरि बोल

तुलसी पौराणिक कथा

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गीता में कहा गया है

हिन्दूतव में भोजन एक यज्ञ मानने के पीछे अध्यात्मिक और वैज्ञानिक कारण

भारतीय संस्कृति व साहित्य में भोजन को अध्यात्म के रूप में स्वीकार किया गया है। हम जैसा भोजन करते हैं वैसे ही हमारे मन और विचार होंगे। भोजन की सामग्री और उसे बनाने वाले के आचार-विचार का प्रभाव उनके खाने वालों पर पडता है रसोई घर स्वास्थ्य का केंद्र बिंदु है। ये तथ्य अब वैज्ञानिक रूप से भी स्वीकार किये जाने लगे हैं। भोजन के इस महत्व के कारण अथर्ववेद, मनुस्मृति, महाभारत आदि ग्रंथों में भी भोजन के संबंध में निर्देश पाए जाते हैं।
भोजन के संबंध में महान संत तुकाराम कहते हैं, ‘तुका म्हणे चवी आले। जे का मिश्रिले विट्ठले’ अर्थात् जिसमें भगवान रूपी मिश्रण है, ऐसा जो भी अन्न हम लेते हैं, उसमें स्वाद आ जाता है।
भोजन के इस विषय पर भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने भोजन के संबंध में जो निर्देश दिए हैं, उनसे स्पष्ट होता है कि केवल स्वास्थ्य के लिए ही नहीं, भक्ति, योग, ध्यान और अध्यात्म के लिए भी भोजन एक महत्वपूर्ण विषय है।

गीता में कहा गया है :
1. -अन्न, फल, शाक, दूध, गुड सब भगवान की बनायी हुई हैं। मनुष्य इन्हें नहीं बना सकता। इनके निर्माण में ऊष्मा, प्रकाश, जल, वायु व पृथ्वी की आवश्यकता होती है। इन्हीं तत्वों से जीवन का निर्माण होता है। इन्हें भी बनाया नहीं जा सकता। अत: भगवान के द्वारा बनायी वस्तु बिना भोग लगाए खाना चोरी ही तो है।

2. भोजन एक यज्ञ का रूप है। भगवान को भोजन का भोग लगाकर प्रसाद के रूप में उसे प्राप्त करना भी यज्ञ का ही एक भाग है। भोजन जब भगवान के लिए तैयार होगा तो उसमें शुद्धता और स्वच्छता का पूरा ध्यान रखा जाएगा। वह स्वाद के लिए कम, स्वास्थ्य के लिए अधिक लाभप्रद होगा। वह श्रेष्ठ भावना से युक्त होगा। वह धन की शुद्धि का भी प्रतीक होगा। केवल स्वाद के लिए बनाया गया भोजन पाप खाने जैसा है, वह शरीर के लिए हितकर नहीं हो सकता।

3. भोजन करने से पूर्व अन्य प्राणियों की भूख का भी विचार करना आवश्यक है। इसलिए भारतीय विचार पद्धति में गाय और कुत्ते जैसे मूक प्राणी के लिए रोटी बनाने का प्रावधान रखा गया है। भारतीय संस्कृति में जिस अतिथि को देवता कहा गया है वह हमारा रिश्तेदार, पहचानवाला नहीं वरन् भोजन के समय आया कोई भी अनजान व्यक्ति है। उसे आदरपूर्वक भोजन कराकर भेजना धर्म है। भोजन से पूर्व सावधानीपूर्वक देखना कर्तव्य है कि आसपास कोई भूखा तो नहीं है।
भोजन का योग में भी बड़ा महत्व बताया गया है। योग और ध्यान के लिए कम खाना और गम खाना दोनों आवश्यक हैं और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह आवश्यक है। इसलिए गीता के छठे अध्याय में इसे बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा गया है।
हे अर्जुन! जो अधिक खाता है या बहुत कम खाता है, जो अधिक सोता है अथवा पर्याप्त नहीं सोता, उसके योगी बनने की कोई संभावना नहीं है। (6/16)
भोजन कि अधिकता हमें तमोगुणी बनाकर आलसी बना देगी जो न केवल हमारी प्रसन्नता व आनंद में अवरोधक हैं बल्कि हमारी सफलता के मार्ग में भी बाधक है।

भोजन भी सात्विक, राजसी व तामसी होता है। भोजन के इन गुणों को स्पष्ट करते हुए गीता के सत्रहवें अध्याय में कहा गया है, ‘जो भोजन सात्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है, वह आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है।
ऐसा भोजन रसमय, स्निग्ध, स्वास्थ्यप्रद तथा हृदय को भाने वाला है। अधिक तिक्त, खट्टा, नमकीन, गरम, चटपटा, शुष्क तथा जलन उत्पन्न करने वाला भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होता है। ऐसा भोजन दु:ख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाला होता है। स्वादहीन, वियोजित एवं सड़ा, जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन उन लोगों को प्रिय होता है जो तामसी होते हैं।’

भोजन से पूर्व यह मंत्र बोलें

अन्नं ब्रह्म रसों विष्णु भोक्ता देवों महेश्वर
ॐपानाय स्वाहा !!
ॐअपानाय स्वाहा !!
ॐवयानाय स्वाहा !!
ॐउदानाय स्वाहा !!
ॐसमानाय स्वाहा !!

भोजन करने से पूर्व पालन करने के नियम

भोजन को अच्छी तरह से धोकर ही भोजन करना चाहिए। भोजन से पूर्व अंगों (2 हाथ, 2 पैर, मुख) को धो लेना चाहिये

*भोजन से पूर्व अन्नदेवता, अन्नपूर्णा माता की स्तुति करके उनका धन्यवाद देते हुए तथा 'सभी भूखों को भोजन प्राप्त हो', ईश्वर से ऐसी प्रार्थना करके भोजन करना चाहिए।
*भोजन बनाने वाला स्नान करके ही शुद्ध मन से, मंत्र जप करते हुए ही रसोई में भोजन बनाएं और सबसे पहले 3 रोटियां (गाय, कुत्ते और कौवे हेतु) अलग निकालकर फिर अग्निदेव को भोग लगाकर ही घर वालों को खिलाएं। *भोजन किचन में बैठकर ही सभी के साथ करें। प्रयास यही रहना चाहिए की परिवार के सभी सदस्यों के साथ मिल बैठकर ही भोजन हो। नियम अनुसार अलग-अलग भोजन करने से परिवारिक सदस्यों में प्रेम और एकता कायम नहीं हो पाती।

2.भोजन समय:-
*प्रातः और सायं ही भोजन का विधान है, क्योंकि पाचनक्रिया की जठराग्नि सूर्योदय से 2 घंटे बाद तक एवं सूर्यास्त से 2.30 घंटे पहले तक प्रबल रहती है। जो व्यक्ति सिर्फ एक समय भोजन करता है वह योगी और जो दो समय करता है वह भोगी कहा गया है।
*एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है 'सुबह का खाना स्वयं खाओ, दोपहर का खाना दूसरों को दो और रात का भोजन दुश्मन को दो।'

3.भोजन की दिशा:-
*भोजन पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुंह करके ही करना चाहिए। दक्षिण दिशा की ओर किया हुआ भोजन प्रेत को प्राप्त होता है। पश्चिम दिशा की ओर किया हुआ भोजन खाने से रोग की वृद्धि होती है।

4.ऐसे में न करें भोजन:-
*शैया पर, हाथ पर रखकर, टूटे-फूटे बर्तनों में भोजन नहीं करना चाहिए।
*मल-मूत्र का वेग होने पर, कलह के माहौल में, अधिक शोर में, पीपल, वटवृक्ष के नीचे भोजन नहीं करना चाहिए।
*परोसे हुए भोजन की कभी निंदा नहीं करनी चाहिए।
*ईर्ष्या, भय, क्रोध, लोभ, रोग, दीनभाव, द्वेषभाव के साथ किया हुआ भोजन कभी पचता नहीं है।
*खड़े-खड़े, जूते पहनकर सिर ढंककर भोजन नहीं करना चाहिए।

5.ये भोजन न करें:-
*गरिष्ठ भोजन कभी न करें।
*बहुत तीखा या बहुत मीठा भोजन न करें।
*किसी के द्वारा छोड़ा हुआ भोजन न करें।
*आधा खाया हुआ फल, मिठाइयां आदि पुनः नहीं खाना चाहिए।
*खाना छोड़कर उठ जाने पर दुबारा भोजन नहीं करना चाहिए।
*जो ढिंढोरा पीटकर खिला रहा हो, वहां कभी न खाएं।
*पशु या कुत्ते का छुआ, रजस्वला स्त्री का परोसा, श्राद्ध का निकाला, बासी, मुंह से फूंक मारकर ठंडा किया, बाल गिरा हुआ भोजन न करें।
*अनादरयुक्त, अवहेलनापूर्ण परोसा गया भोजन कभी न करें।
*कंजूस का, राजा का, वेश्या के हाथ का, शराब बेचने वाले का दिया भोजन और ब्याज का धंधा करने वाले का भोजन कभी नहीं करना चाहिए।

6.भोजन करते वक्त क्या करें:-

*भोजन के समय मौन रहें। *रात्रि में भरपेट न खाएं।*बोलना जरूरी हो तो सिर्फ सकारात्मक बातें ही करें।*भोजन करते वक्त किसी भी प्रकार की समस्या पर चर्चा न करें।
*भोजन को बहुत चबा-चबाकर खाएं।*गृहस्थ को 32 ग्रास से ज्यादा न खाना चाहिए।
*सबसे पहले मीठा, फिर नमकीन, अंत में कड़वा खाना चाहिए।
*सबसे पहले रसदार, बीच में गरिष्ठ, अंत में द्रव्य पदार्थ ग्रहण करें।
*थोड़ा खाने वाले को आरोग्य, आयु, बल, सुख, सुंदर संतान और सौंदर्य प्राप्त होता है।

भोजन के पश्चात क्या न करें:-

भोजन के तुरंत बाद पानी या चाय नहीं पीना चाहिए। भोजन के पश्चात घुड़सवारी, दौड़ना, बैठना, शौच आदि नहीं करना चाहिए।

भोजन के पश्चात क्या करें:-
भोजन के पश्चात दिन में टहलना एवं रात में सौ कदम टहलकर बाईं करवट लेटने अथवा वज्रासन में बैठने से भोजन का पाचन अच्छा होता है। भोजन के एक घंटे पश्चात मीठा दूध एवं फल खाने से भोजन का पाचन अच्छा होता है।

क्या-क्या न खाएं:-
*रात्रि को दही, सत्तू, तिल एवं गरिष्ठ भोजन नहीं करना चाहिए।
*दूध के साथ नमक, दही, खट्टे पदार्थ, मछली, कटहल का सेवन नहीं करना चाहिए। *शहद व घी का समान मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए।
*दूध-खीर के साथ खिचड़ी नहीं खाना चाहिए।

संस्कृति में भोजन संबंधी नियम कौन-से हैं?

भारतीय संस्कृति के अनुसार हाथ-मुँह धोकर आसन पर बैठकर भोजन ग्रहण करना चाहिए। भोजन प्रारंभ करते समय ईश्वर को धन्यवाद देकर नम्रतापूर्वक भोजन ग्रहण करना चाहिए एवं भोजन करते समय बातचीत नहीं करना चाहिए।

भोजन करने से पहले भगवान को भोग लगाने का क्यों है नियम?
अपने देखा होगा कि कई लोग भोजन करने से पहले भगवान का ध्यान करते हैं। कुछ लोग भगवान के नाम पर भोजन का कुछ अंश थाली से बाहर रखकर नैवैद्य रुप में अर्पित करते हैं। इसके पीछे धार्मिक कारण के साथ ही वैज्ञानिक कारण भी है।

सबसे पहले धार्मिक कारणों की बात करते हैं। गीता के तीसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि व्यक्ति बिना यज्ञ किए भोजन करता है वह चोरी का अन्न खाता है। इसका अर्थ हो जो व्यकि भगवान को अर्पित किए बिना भोजन करता है वह अन्न देने वाले भगवान से अन्न की चोरी करता है। ऐसे व्यक्ति को उसी प्रकार का दंड मिलता है जैसे किसी की वस्तु को चुराने वाले को सजा मिलती है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है 'अन्न विष्टा, जलं मूत्रं, यद् विष्णोर निवेदितम्। यानी भगवान को बिना भोग लगाया हुआ अन्न विष्टा के समान और जल मूत्र के तुल्य है। ऐसा भोजन करने से शरीर में विकार उत्पन्न होता है और विभिन्न प्रकार के रोग होते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो स्वस्थ रहने के लिए भोजन करते समय मन को शांत और निर्मल रखना चाहिए। अशांत मन से किया गया भोजन पचने में कठिन होता है। इससे स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसलिए मन की शांति के लिए भोजन से पहले अन्न का कुछ भाग भगवान को अर्पित करके ईश्वर का ध्यान करने की सलाह वेद और पुराणों में दी गई है।

दाएं हाथ से ही क्यों करना चाहिए भोजन? जानिए इसका कारण
कहा जाता है कि भोजन हमेशा दाएं हाथ से ही ग्रहण करना चाहिए। इसका क्या कारण है? शास्त्रों के अनुसार, मनुष्य के दाएं और बाएं अंगों का विशेष महत्व है।
बाएं हाथ से भोजन ग्रहण करने का निषेध इसलिए है क्योंकि शिव ने शरीर के दाएं और बाएं भागों को अलग-अलग कार्यों के लिए निर्धारित किया है।
दायां भाग नारी का प्रतिनिधित्व करता है और बायां पुरुष का। हवन हमेशा दाएं हाथ से किया जाता है जिससे पवित्र अग्नि को सामग्री अर्पित की जाती है।
हमारे पेट में भी उसी अग्नि का सूक्ष्म रूप विराजमान है और भोजन भी यज्ञ का ही एक रूप है। जब हम भोजन ग्रहण करते हैं तो वह उस अग्नि को प्राप्त होता है जिससे हमें जीवन के लिए शक्ति मिलती है।
अतः यज्ञ सामग्री के समान ही भोजन को भी दाएं हाथ से ग्रहण करना चाहिए। इसके अलावा दायां भाग सूर्य का प्रतिनिधित्व करता है और बायां चंद्रमा का।
चंद्रमा शरीर को शीतलता देता है और सूर्य शक्ति। दोनों का संतुलन शरीर को स्वस्थ रखता है। अतः दाएं हाथ से किया गया भोजन शरीर की अग्नि को संतुलित रखने में मदद करता है।
बाएं हाथ से भोजन करने पर शरीर में ग्रहों से संबंधित दोष उत्पन्न हो जाते हैं। अतः भोजन सदैव दाएं हाथ से करना चाहिए।

रात में भोजन के नुक़सान
रात में भोजन, पानी आदि ग्रहण करना जैन धर्म में निषेध हैं| इस निषेध के कई कारण हैं| कीटाणु और रोगाणु जिनको नग्न आंखों से देखना असंभव हैं, वे सूरज की रौशनी में गायब हो जाते हैं, वास्तव में नष्ट नहीं होते; वे छायादार स्थानों में शरण लेते हैं और सूर्यास्त के बाद; वे वातावरण में प्रवेश कर उसे व्याप्त करते हैं और फिर हमारे भोजन में मिल जाते हैं| इस तरह का भोजन उपभोग करने से कीटाणुओं और जीवाणुओ की हत्या होती हैं और बारी में हमारे बीमार स्वास्थ्य का कारण बनते हैं|

हमारी जैविक घड़ी, सूर्य के उदय-अस्त के अनुसार सेट की गयी है| जब सूरज हमारे बिलकुल ऊपर होता है, तब हमारी जठराग्नि उसकी चरम सीमा पर होती है| रात के समय में खाना ठीक से नहीं पचता क्योंकि पाचन प्रणाली रात में सूर्य के प्रकाश की अनुपस्थिति के कारण निष्क्रिय हो जाती है और हमें अपच की समस्या का सामना करना पड़ता है| इन घंटो के दौरान रस प्रक्रिया धीमी हो जाती हैं क्योंकि हम किसी भी प्रकार की शारीरिक गतिविधि में लिप्त नहीं होते जिससे पाचन में मदद मिलती हो| इसलिए रात के समय में ग्रहण किया हुआ भोजन पचा नहीं करता और वह शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है| यह अपचित खाना वजन में वृद्धि करता हैं और वसा के रूप में संग्रहीत होता है| यह सांस में गंध, दांतों की सड़न, कब्ज, घुटने के जोड़ों में दर्द और गले के कई रोग पैदा करता हैं|
भारतीय विज्ञान स्वास्थ्य के एक नियम अनुसार, व्यक्ति को भोजन करने के बाद कई बार थोड़ा-थोड़ा पानी पीना चाहिए| कुछ वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि व्यक्ति को सोने के कम से कम 3-4 घंटे पहले भोजन कर लेना चाहिए ताकि सोने से पूर्व खाना बराबर पच सके| हाँग-काँग देश में हाल ही में एक शोध से साबित हुआ है कि जो शाम को जल्दी खाना खाते हैं, वे दिल की बीमारियों से कम ग्रस्त होते हैं|

रात्रि भोजन से बचने के अन्य वैज्ञानिक कारण:

1. नींद चक्र में अस्थिरता:

अनुसंधान पाया गया है कि रात्रि में खाने से पाचन प्रक्रिया पर निद्रा चक्र का गंभीर प्रभाव होता है, जिसकी वजह से व्यक्ति को निद्रा के बीचमे कई बार जागना पड़ सकता हैं|

2. पेशाब वृद्धि और उत्सर्जन आवश्यकताए:

रात के दौरान पानी और भोजन ग्रहण करने से; शौचालय के उपयोग की संख्या में वृद्धि हो सकती है|

कुछ खाद्य पदार्थ और रात में खाने से उनके परिणाम:

1. उच्च वसावाले भोजन:
तेल, पनीर, फ्रेंच फ्राइज़, अतिरिक्त पनीर और चीज़ के साथ पिज्जा, चिकना भोजन, आदि उच्च वसावाले भोजन को रात में देर से ग्रहण करने से पाचन तंत्र में जमा हो जाते है|
2. मसालेदार खाना: 
न केवल मसालेदार खाना रात में खाने पर सबसे ज्यादा हानिकारक होता है, बल्कि अपनी निद्रा चक्र में भी बाधा उत्पन करता हैं| इसके अलावा, एन्दोर्फिंस का आक्रमण होने पर सोना और भी कठिन हो जाता हैं| मसालेदार भोजन व्यक्ति को शारीरिक रूप से असहज महसूस करा सकता हैं| मसालेदार खाना अन्तरदाह, पेट और मौजूदा समस्याओं को और भी ख़राब करने का कारण बन सकता हैं|
3. कैफीन: 
आप में से अधिकांश लोग शायद बेहतर जानते हैं की रात में कैफीनवाली कॉफी, चाय से बचना चाहिए, लेकिन बात यह हैं की, कई तरह के खानों में कैफीन पहले से ही शामिल होता हैं|
4. लाल मांस: 
लाल मांस भोजन का एक प्रकार है जिससे पचने के लिए बहुत लंबा समय लगता हैं, क्योंकि प्रोटीन और वसा लाल मांस के बहुत सारे प्रकार में पाये जाते है| इसी कारण, लाल मांस का रात में उपभोग करने से एन्दोर्फिंस पैदा होते हैं जिससे सोने में और भी कठिनाई होती हैं|
5. अखरोट आदि: 
आप सोच रहे होंगे कि क्या अखरोट स्वस्थ भोजन नहीं हैं? बेशक है – सेम में बहुत सारा रेशे वाला भाग हैं, जो निस्संदेह आपके शरीर के लिए बहुत अच्छा है| दुर्भाग्य से, सेम का रेशे वाला भाग रात में खाने के लिए बहुत ही हानिकारक हैं क्योंकि वे पचाने के कार्यक्रम को असहज कर देता हैं जिससे रात में पेट की समस्याऍ पैदा हो सकती हैं|

विभिन्न धार्मिक विचारों:

1. जो व्यक्ति शराब, मांस, पेय, सूर्यास्त के बाद खाता है और जमीन के नीचे उगाई सब्जियों का उपभोग करता है; उस व्यक्ति के किये गए तीर्थयात्रा, प्रार्थना और किसी भी प्रकार कि भक्ति बेकार हैं|
- महाभारत (रिशिश्वरभरत)

2. जो व्यक्ति बरसात के मौसम में सूर्यास्त के बाद खाना खाता हैं, उसके पाप हजारों “चंद्रायणतप” करने पर भी नहीं धुलतें|
- रिशिश्वरभरत (वैदिकदर्शन)

3. जो व्यक्ति सूर्यास्त के पहले खाते हैं और विशेष रूप से बरसात के मौसम में रात्रि भोजन का त्याग करते हैं; उस व्यक्ति के इस जीवन की और अगले जीवन की सारी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं|
- योगवशिष्ट पुर्वघश्लो 108

4. मारकंडपुराण में यह कहा गया है कि सूर्यास्त के बाद पानी पीना रक्त पीने के और भोजन करना मांस खाने के बराबर है|
- मारकंडऋषि

5. एक आदमी की इष्टतम दैनिक दिनचर्या के लिए रात में खाने से बचना चाहिए क्योंकि उस समय जठराग्नि, जो खाना पचाने का काम करती हैं, उस दौरान बहुत कमजोर होती हैं|
- चरकसंहिता और अष्टांग संग्रह

6. हिंदुओं के प्राचीन शास्त्रों में यह कहा गया है कि, “चत्वारि नरक्द्वाराणि प्रथमं रात्रिभोजनम्”, मतलब रात्रिभोजन नरक का पहला द्वार है|
यहां तक कि, मधुमक्खियों, गौरैयों, तोते, कबूतर और कई अन्य प्रकार के उत्तम पक्षी भी सूर्यास्त के बाद नहीं खाते|
दुनिया के सभी धर्मों में से, जैन धर्म खान-पान जैसी छोटी चीजों की जांच करने में भी अद्वितीय हैं| जैन धर्म समान रूप से मन, शरीर और आत्मा के विकास पर ध्यान केंद्रित करता है| भोजन के कुछ प्रभाव, दोनों अच्छे और बुरे, न केवल शरीर पर बल्कि मन पर भी असर करते हैं| आखिर जैसा आप खाते है वैसा आप सोचते हैं|

सूर्यास्त के बाद खाने का पाप:

कोई शिकारी छन्नु (९६) भव तक संलग्न शिकार करके जो पापराशी इकट्ठी करता है| उससे मात्र एक तालाब का शोषण करने का पाप बढ जाता है| सौ (१००) भव तक कोई मानव सरोवर सुकाने से जो पाप राशी इकट्ठी करता है| उससे ज्यादा एक वन को आग लगाने से पाप लगता है| एक सौ आठ (१०८) भव तक वन में आग लगाने से जो पाप राशी इकट्ठी होती है उससे ज्यादा पाप एक कुवाणिज्य करने से होता है| एक सौ चुम्मालिश (१४४) भव तक कुवाणिज्य करके जो पाप की राशी एकत्रित होती है उससे ज्यादा पाप एक कुकलंक लगाने में लगता है| एक सौ इक्कावन (१५१) भव तक असत्य कलंक लगाकर जो पाप के पहाड एकत्रित होते हैं उससे ज्यादा पाप एकबार परस्त्रीगमन करने के कारण लगता है| एक सौ निन्याणु (१९९) भव तक परस्त्रीगमन करके जो महाभयानक पापों की पोटली बांधकर आत्मा भारी होता है उससे भी ज्यादा पाप एक दिन के रात्री भोजन करने में लगता है|
यदि आप अब तक के जीवन की रात्रिभोजन के पाप की गणना करते हैं तो संचित कर्मो की राशि असंख्य हो जाती हैं|
यदि आप अपने पूरे जीवन के लिए सूर्यास्त से पहले खाना खाते हैं, तो आपको अपने आधे जीवन के उपवास का फल प्राप्त होता है|
रात्रिभोजन का त्याग, स्वर्ग के द्वार का आगमन हैं|

दैनिक जीवन में लाभ:

1. होटल में नो वेटिंग:

हम सबने अनुभव किया है कि शनिवार/रविवार की रात को होटल में खाने के लिए 10 मिनट से लेके 1-2 घंटे तक होटल के बाहर इंतजार करना पड़ता है| आप इंतज़ार करते करते थक जाते हैं जिसके बाद खाने का मन नहीं करता| और अगर आप के साथ बच्चे हो तो परीस्थिति बदतर हो जाती है| जो लोग सूर्यास्त से पहले खाना खाते हैं उन्हें होटल के बाहर प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि बहुत कुछ लोग होते हैं, जो सूर्यास्त से पहले खाना खाते हैं| इसके अलावा, होटल में भोजन, सफाई और स्वचाता की जो सेवा सूर्यास्त के बाद प्रदान होती हैं उससे कई गुना बेहतर सुविधा सूर्यास्त के पहले प्रदान होती हैं|

2. परिवार के लिए समय:

यदि सूर्यास्त से पहले परिवार में हर कोई भोजन कर लेता हो तो, घर के सभी काम पूरे हो जाते हैं और घर की महिलाओं को अपने बच्चों, परिवार और अन्य गतिविधियों के लिए पर्याप्त समय मिल पाता हैं |
सूर्यास्त से पहले नहीं खाने के और भी कई अन्य लाभ हैं| कई लोग इस दिशा में आगे भी बढ़ चुके है|
अगर आप उनमें से हो जो धर्म में विश्वास नहीं रखते, फिर भी रात में न खाने के बहुत सारे वैज्ञानिक कारण हैं जिससे आप चुस्त-दुरुस्त रह सकते हैं|



गीता में कहा गया है

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Friday, November 20, 2015

ज्ञान का राजा

ज्ञान का राजा
"श्री भगवान ने  कहा-प्रिय अर्जुन तुम मुजसे  कभी द्वेष नही करते हो इसिलये मे तुमे यह अत्यंत गोपन्ये ज्ञान प्रदान करूंगा.जिसे जान कर तुम भौतिक अस्तेत्वा के कलेसो से मुक्त हो जाओगे.
भगवतगीता  के नवम अधयय के शब्द सूचित करते है की परम भगवान बोल रहे है.भग का अर्थ है 'ऐश्वर्य' और वान का  अर्थ है   'से युक्त'
राज बिधा का तात्पर्य है'राजा और बिधा का अर्थ है'ज्ञान'.
सामान्या जीवन मेकोई भ्यक्ति एक  विषय मे राजा है.तो दूसरा किसी अन्य विषय मे.किन्तु यह ज्ञान  अन्या सबो मे स्र्वापरी है.

ज्ञान का राजा

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श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय 1.

श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय 1.

सारांश

गीता जी के अध्याय 1 के श्लोक 1 से 19 तक इन श्लोकों में संजय सेना की स्थिति तथा सेना में आए गणमान्य योद्धाओं के बारे में जानकारी धृतराष्ट्र को दे रहा है। गीता अध्याय 1 के श्लोक 20 से 23 श्लोकों में अर्जुन कह रहा है कि भगवन्! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में ले चलो ताकि देख लूं कि मेरे सामने टिकने वाले कौन कौन से योद्धा हैं।

गीता अध्याय 1 के श्लोक 24, 25 में वर्णन है कि भगवान कृष्ण ने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में खड़ा करके अर्जुन से कहा कि देख सामने खड़े राजाओं तथा कुरुवंशियों को। गीता अध्याय 1 के श्लोक 26 से 45 तक के श्लोकों में वर्णन है कि अर्जुन ने युद्ध के लिए तत्पर अपने ही सम्बन्धियों को, पुत्रों व पौत्रों को, साले ससुरों को मरने मारने के लिए आए हुए देखा तथा श्री कृष्ण जी से विशेष विवेक से कहा कि सामने खड़े मासूम बच्चों, अपने साथी व चचेरे भाईयों व सम्बन्धियों को देखकर मेरा शरीर काँप रहा है। धनुष हाथ से गिर रहा है। मैं खड़ा भी नहीं रह पा रहा हूँ। अपने ही जनों को मारना अच्छा महसूस नहीं कर रहा हूँ। हे कृष्ण! न तो मैं विजय चाहता हूँ, न ही राज्य का सुख। चूंकि उनको जो स्वयं अपने राज्य व जान की परवाह (चिंता) न करके मरने को तैयार हैं उन्हें मार कर मैं राज्य नहीं चाहता। मैं बन्धुओं व पुत्र तथा पौत्रों को मारना नहीं चाहता। चाहे मुझे तीनों लोकों का राज्य भी क्यांे न मिलता हो, फिर पृथ्वी के राज्य के लिए तो क्यों पाप करूँ? इनको मारने से तो पाप ही लगेगा। ऐसे कुकर्म करके हम कैसे सुखी हो सकते हैं? ये सामने खड़े राजा लोग तो मोह माया में अंधे हो रहे हैं। फिर हमें तो ज्ञान है। ऐसा क्यों करें कि कुल का नाश होने पर दूसरे दुष्कर्मी लोग हमारी स्त्रिायों को बलात तंग करेंगे। वर्णशंकर संतान हो जाएगी। पतिव्रता धर्म नष्ट हो जाएगा तथा धर्म कर्म न करने से नरक के भागी हो जाएंगे। वास्तव में हम बहुत पापी हैं जो अपने ही बन्धुओं को स्वार्थ वश मारने को तैयार हो गये हैं। गीता अध्याय 1 के श्लोक 46 में अर्जुन ने कहा कि भगवन इस पाप को बचाने के लिए यदि धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ निहत्थे को मार दें और युद्ध न हो, तो भी मैं स्वयं मरना बेहतर समझता हूँ कि एक मेरे मरने से लाखों बहन विधवा होने से बच जाएंगी तथा लाखों मासूम बच्चे अनाथ होने से बच जाएंगे। गीता अध्याय 1 के श्लोक 47 में यह कह कर अर्जुन दुःखी मन से रथ के बीच वाले हिस्से में बैठ गया तथा धनुषको रख दिया।


श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय 1.

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पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी का ज्ञान किसने कहा.

पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी का ज्ञान किसने कहा.


पवित्र गीता जी के ज्ञान को उस समय बोला गया था जब महाभारत का युद्ध होने जा रहा था। अर्जुन ने युद्ध करने से इन्कार कर दिया था। युद्ध क्यों हो रहा था? इस युद्ध को धर्मयुद्ध की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती क्योंकि दो परिवारों का सम्पत्ति वितरण का विषय था। कौरवों तथा पाण्डवों का सम्पत्ति बंटवारा नहीं हो रहा था। कौरवों ने पाण्डवों को आधा राज्य भी देने से मना कर दिया था। दोनों पक्षों का बीच-बचाव करने के लिए प्रभु श्री कृष्ण जी तीन बार शान्ति दूत बन कर गए। परन्तु दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जिद्द पर अटल थे। श्री कृष्ण जी ने युद्ध से होने वाली हानि से भी परिचित कराते हुए कहा कि न जाने कितनी बहन विधवा होंगी ? न जाने कितने बच्चे अनाथ होंगे ? महापाप के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। युद्ध में न जाने कौन मरे, कौन बचे ? तीसरी बार जब श्री कृष्ण जी समझौता करवाने गए तो दोनों पक्षों ने अपने-अपने पक्ष वाले राजाओं की सेना सहित सूची पत्र दिखाया तथा कहा कि इतने राजा हमारे पक्ष में हैं तथा इतने हमारे पक्ष में। जब श्री कृष्ण जी ने देखा कि दोनों ही पक्ष टस से मस नहीं हो रहे हैं, युद्ध के लिए तैयार हो चुके हैं। तब श्री कृष्ण जी ने सोचा कि एक दाव और है वह भी आज लगा देता हूँ। श्री कृष्ण जी ने सोचा कि कहीं पाण्डव मेरे सम्बन्धी होने के कारण अपनी जिद्द इसलिए न छोड़ रहे हों कि श्री कृष्ण हमारे साथ हैं, विजय हमारी ही होगी(क्योंकि श्री कृष्ण जी की बहन सुभद्रा जी का विवाह श्री अर्जुन जी से हुआ था)। श्री कृष्ण जी ने कहा कि एक तरफ मेरी सर्व सेना होगी और दूसरी तरफ मैं होऊँगा और इसके साथ-साथ मैं वचन बद्ध भी होता हूँ कि मैं हथियार भी नहीं उठाऊँगा। इस घोषणा से पाण्डवों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उनको लगा कि अब हमारी पराजय निश्चित है। यह विचार कर पाँचों पाण्डव यह कह कर सभा से बाहर गए कि हम कुछ विचार कर लें। कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी को सभा से बाहर आने की प्रार्थना की। श्री कृष्ण जी के बाहर आने पर पाण्डवों ने कहा कि हे भगवन् ! हमें पाँच गाँव दिलवा दो। हम युद्ध नहीं चाहते हैं। हमारी इज्जत भी रह जाएगी और आप चाहते हैं कि युद्ध न हो, यह भी टल जाएगा।

पाण्डवों के इस फैसले से श्री कृष्ण जी बहुत प्रसन्न हुए तथा सोचा कि बुरा समय टल गया। श्री कृष्ण जी वापिस आए, सभा में केवल कौरव तथा उनके समर्थक शेष थे। श्री कृष्ण जी ने कहा दुर्योधन युद्ध टल गया है। मेरी भी यह हार्दिक इच्छा थी। आप पाण्डवों को पाँच गाँव दे दो, वे कह रहे हैं कि हम युद्ध नहीं चाहते। दुर्योधन ने कहा कि पाण्डवों के लिए सुई की नोक तुल्य भी जमीन नहीं है। यदि उन्हंे राज्य चाहिए तो युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र के मैदान में आ जाऐं। इस बात से श्री कृष्ण जी ने नाराज होकर कहा कि दुर्योधन तू इंसान नहीं शैतान है। कहाँ आधा राज्य और कहाँ पाँच गाँव? मेरी बात मान ले, पाँच गाँव दे दे। श्री कृष्ण से नाराज होकर दुर्योधन ने सभा में उपस्थित योद्धाओं को आज्ञा दी कि श्री कृष्ण को पकड़ो तथा कारागार में डाल दो। आज्ञा मिलते ही योद्धाओं ने श्री कृष्ण जी को चारों तरफ से घेर लिया। श्री कृष्ण जी ने अपना विराट रूप दिखाया। जिस कारण सर्व योद्धा और कौरव डर कर कुर्सियों के नीचे घुस गए तथा शरीर के तेज प्रकाश से आँखें बंद हो गई। श्री कृष्ण जी वहाँ से निकल गए।

आओ विचार करें:- उपरोक्त विराट रूप दिखाने का प्रमाण संक्षिप्त महाभारत गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित में प्रत्यक्ष है। जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवत्र्त हुआ हूँ। फिर अध्याय 11 श्लोक 21 व 46 में अर्जुन कह रहा है कि भगवन् ! आप तो ऋषियों, देवताओं तथा सिद्धों को भी खा रहे हो, जो आप का ही गुणगान पवित्र वेदों के मंत्रों द्वारा उच्चारण कर रहे हैं तथा अपने जीवन की रक्षा के लिए मंगल कामना कर रहे हैं। कुछ आपके दाढ़ों में लटक रहे हैं, कुछ आप के मुख में समा रहे हैं। हे सहò बाहु अर्थात् हजार भुजा वाले भगवान ! आप अपने उसी चतुर्भुज रूप में आईये। मैं आपके विकराल रूप को देखकर धीरज नहीं कर पा रहा हूँ।

अध्याय 11 श्लोक 47 में पवित्र गीता जी को बोलने वाला प्रभु काल कह रहा है कि ‘हे अर्जुन यह मेरा वास्तविक काल रूप है, जिसे तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था।‘ उपरोक्त विवरण से एक तथ्य तो यह सिद्ध हुआ कि कौरवों की सभा में विराट रूप श्री कृष्ण जी ने दिखाया था तथा यहाँ युद्ध के मैदान में विराट रूप काल (श्री कृष्ण जी के शरीर मंे प्रेतवत् प्रवेश करके अपना विराट रूप काल) ने दिखाया था। नहीं तो यह नहीं कहता कि यह विराट रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा है। क्योंकि श्री कृष्ण जी अपना विराट रूप कौरवों की सभा में पहले ही दिखा चुके थे।

दूसरी यह बात सिद्ध हुई कि पवित्र गीता जी को बोलने वाला काल(ब्रह्म-ज्योति निरंजन) है, न कि श्री कृष्ण जी। क्योंकि श्री कृष्ण जी ने पहले कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ तथा बाद में कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ। श्री कृष्ण जी काल नहीं हो सकते। उनके दर्शन मात्र को तो दूर-दूर क्षेत्र के स्त्री तथा पुरुष तड़फा करते थे। यही प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 24. 25 में है जिसमें गीता ज्ञान दाता प्रभु ने कहा है कि बुद्धिहीन जन समुदाय मेरे उस घटिया (अनुत्तम) विद्यान को नहीं जानते कि मैं कभी भी मनुष्य की तरह किसी के सामने प्रकट नहीं होता। मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ।

उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण जी नहीं है। क्योंकि श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था।

पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी का ज्ञान किसने कहा.

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श्रीमद् भगवद् गीता का महत्व

श्रीमद् भगवद् गीता का महत्व

कल्याण की इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है कि मोह का त्याग कर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बच्चों को अर्थ और भाव के साथ श्रीगीताजी का अध्ययन कराएँ। 
स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान की आज्ञानुसार साधन करने में समर्थ हो जाएँ क्योंकि अतिदुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी दु:खमूलक क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है।
गीताजी का पाठ आरंभ करने से पूर्व निम्न श्लोक को भावार्थ सहित पढ़कर श्रीहरिविष्णु का ध्यान करें--

अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्यनाभं सुरेशं 
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं 
वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।

भावार्थ : जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो ‍देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै-
र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो-
यस्तानं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।।

भावार्थ : ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्‍गण दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगीजन ध्यान में स्थित तद्‍गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुर गण (कोई भी) जिनके अन्त को नहीं जानते, उन (परमपुरुष नारायण) देव के लिए मेरा नमस्कार है।


श्रीमद्‍भगवद्‍गीता का पाठ करें

श्रीमद् भगवद् गीता का महत्व

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Wednesday, November 18, 2015

श्रीकृष्ण चालीसा

श्रीकृष्ण चालीसा


दोहा

बंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम।
अरुणअधरजनु बिम्बफल, नयनकमलअभिराम॥
पूर्ण इन्द्र, अरविन्द मुख, पीताम्बर शुभ साज।
जय मनमोहन मदन छवि, कृष्णचन्द्र महाराज॥

जय यदुनंदन जय जगवंदन।
जय वसुदेव देवकी नन्दन॥
जय यशुदा सुत नन्द दुलारे।
जय प्रभु भक्तन के दृग तारे॥
जय नट-नागर, नाग नथइया॥
कृष्ण कन्हइया धेनु चरइया॥
पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो।
आओ दीनन कष्ट निवारो॥
वंशी मधुर अधर धरि टेरौ।
होवे पूर्ण विनय यह मेरौ॥
आओ हरि पुनि माखन चाखो।
आज लाज भारत की राखो॥
गोल कपोल, चिबुक अरुणारे।
मृदु मुस्कान मोहिनी डारे॥
राजित राजिव नयन विशाला।
मोर मुकुट वैजन्तीमाला॥
कुंडल श्रवण, पीत पट आछे।
कटि किंकिणी काछनी काछे॥
नील जलज सुन्दर तनु सोहे।
छबि लखि, सुर नर मुनिमन मोहे॥
मस्तक तिलक, अलक घुँघराले।
आओ कृष्ण बांसुरी वाले॥
करि पय पान, पूतनहि तार्‌यो।
अका बका कागासुर मार्‌यो॥
मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला।
भै शीतल लखतहिं नंदलाला॥
सुरपति जब ब्रज चढ़्‌यो रिसाई।
मूसर धार वारि वर्षाई॥
लगत लगत व्रज चहन बहायो।
गोवर्धन नख धारि बचायो॥
लखि यसुदा मन भ्रम अधिकाई।
मुख मंह चौदह भुवन दिखाई॥
दुष्ट कंस अति उधम मचायो॥
कोटि कमल जब फूल मंगायो॥
नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हें।
चरण चिह्न दै निर्भय कीन्हें॥
करि गोपिन संग रास विलासा।
सबकी पूरण करी अभिलाषा॥


केतिक महा असुर संहार्‌यो।
कंसहि केस पकड़ि दै मार्‌यो॥
मात-पिता की बन्दि छुड़ाई।
उग्रसेन कहँ राज दिलाई॥
महि से मृतक छहों सुत लायो।
मातु देवकी शोक मिटायो॥
भौमासुर मुर दैत्य संहारी।
लाये षट दश सहसकुमारी॥
दै भीमहिं तृण चीर सहारा।
जरासिंधु राक्षस कहँ मारा॥
असुर बकासुर आदिक मार्‌यो।
भक्तन के तब कष्ट निवार्‌यो॥
दीन सुदामा के दुःख टार्‌यो।
तंदुल तीन मूंठ मुख डार्‌यो॥
प्रेम के साग विदुर घर माँगे।
दुर्योधन के मेवा त्यागे॥
लखी प्रेम की महिमा भारी।
ऐसे श्याम दीन हितकारी॥
भारत के पारथ रथ हाँके।
लिये चक्र कर नहिं बल थाके॥
निज गीता के ज्ञान सुनाए।
भक्तन हृदय सुधा वर्षाए॥
मीरा थी ऐसी मतवाली।
विष पी गई बजाकर ताली॥
राना भेजा साँप पिटारी।
शालीग्राम बने बनवारी॥
निज माया तुम विधिहिं दिखायो।
उर ते संशय सकल मिटायो॥
तब शत निन्दा करि तत्काला।
जीवन मुक्त भयो शिशुपाला॥
जबहिं द्रौपदी टेर लगाई।
दीनानाथ लाज अब जाई॥
तुरतहि वसन बने नंदलाला।
बढ़े चीर भै अरि मुँह काला॥
अस अनाथ के नाथ कन्हइया।
डूबत भंवर बचावइ नइया॥
'सुन्दरदास' आस उर धारी।
दया दृष्टि कीजै बनवारी॥
नाथ सकल मम कुमति निवारो।
क्षमहु बेगि अपराध हमारो॥
खोलो पट अब दर्शन दीजै।
बोलो कृष्ण कन्हइया की जै॥

दोहा
यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करै उर धारि।
अष्ट सिद्धि नवनिधि फल, लहै पदारथ चारि॥

श्रीकृष्ण चालीसा

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 क्या हैं अध्यात्म जगत ?

 क्या हैं अध्यात्म जगत ?

जब आध्यात्मिक संत महात्माओं से अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति होती है, तब सबसे पहले निराकार ब्रह्म ज्योति का दर्शन होता है। दर्शन किसको होता है? वह जीवात्मा को होता है। जैसे सूर्य बादलों से ढंका रहता है, वैसे ही आत्मा रूपी सूर्य की जड़ प्रकृति के तत्वों से ढंका हुआ रहता है।

आत्मा की चमक से ही हमारे मुख मंडल में चमक हो रही है, आंखों में रोशनी हो रही है। प्राण के अंदर जो अविनाशी शब्द है, जब साधन उसमें अपनी सुरति जोड़कर अभ्यास करता है, तो जीवन के अंदर ब्रह्म सूर्य की शक्ति से सूक्ष्म जगत दिखाई देता है। यही तो अध्यात्म जगत है।


जब साधक शब्द का अभ्यास करता है, तब ब्रह्म सूर्य की किरणों से ज्ञान रूपी अग्नि प्रकट होती है। इसी को योग अग्नि भी कहते हैं। योग अग्नि भौतिक सूर्य की अग्नि व यम की अग्नि से भी तेज होती है। जैसे सूर्य के उदय होने पर बिजली के बल्ब आदि की रोशनी शून्य हो जाती है। उसी प्रकार योगी जब योग अग्नि को प्रकट कर लेता है तब जड़ प्रकृति के वे सभी सूक्ष्म तत्व जल कर भस्म हो जाते हैं। जिन्होंने आत्मा के प्रकाश को रोक रखा था। फिर आत्मा रूपी सूर्य की रोशनी प्रज्वलित हो जाती है।

चित्त की ये समग्र वृत्तियां जो संसार की तरफ वरत रही थी, अब मुड़ कर आत्मा की तरफ बरतने लग जाती है। मन का अहंकार समाप्त हो जाता है, आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप में स्थित हो जाती है। प्रकृति रूपी पत्नी का जड़ प्रभाव समाप्त होकर वह आत्मा रूपी पवित्र पुरुष पति में समा जाती है। अर्थात्‌ प्रकृति का रूहानी पवित्र भाग आत्मा रूपी पुरुष में एकाकार हो जाता है।

अब योगी को भूत भविष्य व वर्तमान का ज्ञान हो जाता है और वह काल के भय से निर्भय हो जाता है, प्रकृति उसके बस में हो जाती है। वह अब उसको पग पग पर सहयोग रकती है, यही आत्मा व परमात्मा का मिलन भी है। यही पतिव्रता धर्म भी है।

कई लोगों का कथन है, कि आत्मा परमात्मा में मिलकर वापस नहीं आती, इसको बहुत लोग सही भी मानते हैं। कि जैसे नदी सागर में मिलकर उसमें समा जाती है, उसी प्रकार आत्मा भी परमात्मा में मिलकर उसमें समा जाती है। यह उदाहरण सही नहीं है। यह कच्चे साधकों का अनुमान हैं।

जब प्रकृति आत्मा रूपी पुरुष के साथ एकाकार हो जाती है, तब वह आत्मा ब्रह्म सागर से वापस भी आती है और अपनी इच्छानुसार लोक कल्याण के लिए संसार में जन्म भी ले लेती है। आत्मा प्रकृति के बंधन से मुक्त हो जाती है।

क्या हैं अध्यात्म जगत ?

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Tuesday, November 17, 2015

योग-कृष्ण

योग-कृष्ण


तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्'-गी.अर्थात इससे समत्वबुद्धि योग के लिए ही चेष्टा करो, यह समत्वबुद्धि-रूप योग ही कर्मों में चतुरता है। अर्थात कर्मो में कुशलता को ही योग कहते है। सुकर्म, अकर्म और विकर्म- तीन तरह के कर्मों की योग और गीता में विवेचना की गई है।


कर्म : 

सुकर्म वह है जो धर्म और योग युक्त आचरण है। पलायनवादी चित्त को प्रदर्शित करता है अकर्म, जो जीवन के हर मोर्चे से भाग जाए ऐसा अकर्मी तटस्थ और संशयी बुद्धि माना जाता है। वह दुर्बल और भीरू होता है और यह भी कि उसे मौन समर्थक कहा जाता है। सुकर्म और विकर्म का अस्तित्व होता है परन्तु अकर्म का नहीं।

कर्म में कुशलता : 

कर्मवान अपने कर्म को कुशलता से करता है। कर्म में कुशलता आती है कार्य की योजना से। योजना बनाना ही योग है। योजना बनाते समय कामनाओं का संकल्प त्यागकर विचार करें। तब कर्म को सही दिशा मिलेगी। कामनाओं का संकल्प त्याग का अर्थ है ऐसी इच्छाएँ न रखे जो केवल स्वयं के सुख, सुविधाओं और हितों के लिए हैं। अत: स्वयं को निमित्त जान कर्म करो जिससे कर्म का बंधन और गुमान नहीं रहता। निमित्त का अर्थ उस एक परमात्मा द्वारा कराया गया कर्म जानो।-

समत्व बुद्धि : 

जिस मनुष्य का जीवन योगयुक्त है, उसे जीवन चलाने के कर्म बंधन में बाँधने वाले नहीं होते। जैसे कमल किचड़ में रहकर भी कमल ही रहता है। युक्त और अयुक्त का अर्थ योगयुक्त और योगअयुक्त से है अर्थात योग है समत्व बुद्धि। समत्वं योग उच्यते-

समत्व बुद्धि से तात्पर्य सोच-विचार कर किए गए कर्म को योगयुक्त कर्म कहते है। समत्व बुद्धि से अर्थ सुख-दुख, विजय-पराजय, हर्ष-शोक, मान-अपमान इत्यादि द्वन्द्वों में विचलित हुए बगैर एक समान शांत चित्त रहे- वही कर्मयोगी कहलाता है।

कर्म का महत्व : 

गीता में कर्म योग का बहुत महत्व है। कर्म बंधन से मुक्त का साधन योग बताता है। कर्मों से मुक्ति नहीं, कर्मों के जो बंधन है उससे मुक्ति ही योग है। कर्म बंधन अर्थात हम जो भी कर्म करते है उससे जो शरीर और मन पर प्रभाव पड़ता है उस प्रभाव के बंधन से आवश्यक है। जहाँ तक अच्छा प्रभाव पड़ता है वहाँ तक सही है किंतु योगी सभी तरह के प्रभाव बंधन से मुक्ति चाहता है। यह ‍मुक्ति ही स्थितिप्रज्ञ योग है। अर्थात् अविचलित बुद्धि और शरीर। भय और चिंता से योगी न तो भयभित होता है और न ही उस पर वातावरण का कोई असर होता है।

स्थितप्रज्ञ : 

जैसे जहाज को चलाने वाले के पास ठीक दिशा बताने वाला कम्पास या यंत्र होना चाहिए उसी तरह श्रेष्ठ जीवन जीने के तथा मोक्ष के अभिलाषी व्यक्ति के पास 'योग' होना चाहिए। योग नहीं तो जीवन दिशाहीन है। यही बात कृष्ण ने गीता में स्थितप्रज्ञ के विषय में कही है। बुद्धि को निर्मल और तीव्र करने के लिए योग ही एक मात्र साधन है। योग स्‍थित व्यक्ति साधारण मनुष्यों से विलक्षण देखने लगता है।

'सर्दी-गरमी, मान-अपमान, सुख-दुख में जिसका चित्त शांत रहता है और जिसका आत्मा इंद्रियों पर विजयी है, वह परमात्मा में लीन व्यक्ति योगारूढ़ कहा जाता है। 'योगी लोहा, मिट्टी, सोना इत्यादि को एक समान समझता है। वह ज्ञान-विज्ञान से तृप्त रहता है। वह कूटस्थ होता है, जितेन्द्रिय होता है और उसका आत्मा परमात्मा से युक्त होता है।

विलक्षण समन्वय : 

गीता में ज्ञान, कर्म और भक्ति का विलक्षण समन्वय हुआ है। ज्ञानमार्ग या ज्ञान योग को ध्यान योग भी कहा जाता है जो कि योग का ही एक अंग है। भक्ति मार्ग या भक्तियोग भी आष्टांग योग के नियम का पाँचवाँ अंग ईश्वर प्राणिधान है। इस तरह कृष्ण ने गीता में योग को तीन अंगों में सिमेट कर उस पर परिस्थिति अनुसार संक्षित विवेचन किया है।

व्यायाम मात्र नहीं : बिना ज्ञान के योग शरीर और मन का व्यायाम मात्र है। ज्ञान प्राप्त होता है यम और नियम के पालन और अनुशासन से। यम और नियम के पालन या अनुशासन के बगैर भक्ति जाग्रत नहीं होती। तब योग और गीता कहते है कि कर्म करो, चेष्ठा करो, संकल्प करो, अभ्यास करो, जिससे ‍की ज्ञान और भक्ति का जागरण हो। अभ्यास से धीरे-धीरे आगे बढ़ों। कर्म में कुशलता ही योग है। कर्म से शरीर और मन को साधा जा सकता है और कर्म से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है इसलिए जबरदस्त कर्म करो।

जैसे वायु रहित स्थान में दीपक की लौ स्थिर रहती है, वैसे ही योगी का चित्त स्थिर रहता है।-- योगेश्वर श्रीकृष्ण

अतत: : योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने योग की शिक्षा और दिक्षा उज्जैन स्थित महर्षि सांदिपनी के आश्रम में रह कर हासिल की थी। वह योग में पारगत थे तथा योग द्वारा जो भी सिद्धियाँ स्वत: की प्राप्य थी उन सबसे वह मुक्त थे। सिद्धियों से पार भी जगत है वह उस जगत की चर्चा गीता में करते है। गीता मानती है कि चमत्कार धर्म नहीं है।

बहुत से योगी योग बल द्वारा जो चमत्कार बताते है योग में वह सभी वर्जित है। सिद्धियों का उपयोग प्रदर्शन के लिए नहीं अपितु समाधि के मार्ग में आ रही बाधा को हटाने के लिए है।

योग-कृष्ण

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परमात्मा और योग का संबंध

परमात्मा और योग का संबंध

संसार के संयोग-वियोग से रहित जो अत्यन्तिक सुख है, जिसे परमतत्व परमात्मा कहते हैं उसके मिलन का नाम योग है। वह योग न उकताए हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है। धैर्यपूर्वक सतत्‌ अभ्यास से लगने वाला ही उसे प्राप्त करता है। परमतत्व परमात्मा और हमारे बीच में मन की तरंगें हैं, चित्त की वृत्तियां हैं। इन वृत्तियों का निरोध कैसे हो?

इतनी ही तो साधना है, जिसे पूर्व मनीषियों ने देश, काल और पात्र भेद के अनुसार अपनी-अपनी भाषा शैली में व्यक्त किया है। लौकिक सुख तथा पारलौकिक आनन्द की प्राप्ति के एकमात्र स्रोत परमात्मा की शोध का जो संकलन वेदों में है, वही उपनिषदों में उद्गीथ विद्या, संवर्ण विद्या, मधुविद्या, आत्मविद्या, दहर विद्या, भूमाविद्या, मन्थविद्या, न्यासविद्या इत्यादि नामों से अभिहित किया गया। इसी को महर्षि पतंजलि के योगदर्शन में योग की संज्ञा दी गई।

योग है क्या?

 महर्षि कहते हैं, अथ योगानुशासनम्‌। योग एक अनुशासन है। हम किसे अनुशासित करें-परिवार को, देश को, पास-पड़ोस को? सूत्रकार कहते हैं नहीं योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। किसी ने परिश्रम कर निरोध कर लिया तो उससे लाभ? तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्‌। उस समय द्रष्टा यह आत्मा अपने सहज स्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाता है।

क्या पहले वह स्थित नहीं था?

 महर्षि के अनुसार वृत्तिसारूप्यमितरत्र। दूसरे समय द्रष्टा का वैसा ही स्वरूप है, जैसी उसकी वृत्तियां सात्विक, राजसी अथवा तामस हैं, क्लिष्ट, अक्लिष्ट इत्यादि। इन वृत्तियों का निरोध कैसे हो? अभ्यासवैराग्याभ्यां तत्रिरोधः। चित्त को लगाने के लिए जो प्रत्यन किया जाता है उसका नाम अभ्यास है। देखी-सुनी संपूर्ण वस्तुओं में राग का त्याग वैराग्य है। अभ्यास करें तो किसका करें?

'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः' क्लेश, कर्म, कर्मों के संग्रह और परिणाम भोग से जो अतीत है वह पुरुष विशेष ईश्वर है। वह काल से भी परे है, गुरुओं का भी गुरु है। उसका वाचक नाम 'ओम्‌' है। 'तज्ज्पस्तदर्थलाभवनम्‌' उस ईश्वर के नाम प्रणव का जप करो, उसके अर्थस्वरूप उस ईश्वर के स्वरूप का ध्यान करो, अभ्यास इतने में ही करना है। इस अभ्यास के प्रभाव से अन्तराय शांत हो जाएंगे, क्लेशों का अन्त हो जाएगा और द्रष्टा स्वरूप में स्थिति तक की दूरी तय कर लेगा।

इन समस्त प्रकरण में योग के लिए वृत्तियों का संघर्ष झेलना है। यह शरीर का क्रिया कलाप, इसकी विभिन्न मुद्राएं योग कब से और कैसे हो गईं? कोई दिन-रात लगातार चौबीसों घंटे योग के नाम पर प्रचलित इन आसनों को कर भी तो नहीं सकता जबकि गीता के अनुसार योग सतत्‌ चलने वाली प्रक्रिया है और महर्षि पतंजलि के अनुसार, 'सतु दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्काराऽऽसेवितो दृढभूमिः' योग का यह अभ्यास बहुत काल तक लगातार श्रद्धापूर्वक करते रहने से दृढ़ अवस्थावाला होता है।

अभ्यास में करना क्या है?

 क्या कोई आसन? नहीं, उसमें करना है 'ओम्‌ का जप और ईश्वर का ध्यान'। योग का परिणाम क्या है? द्रष्टा की स्वरूप में स्थिति। इसके अतिरिक्त लक्षणोंवाला, भिन्न परिणामवाला साधक योग कदापि नहीं है।

परमात्मा और योग का संबंध

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Monday, November 16, 2015

कृष्ण 

कृष्ण

।। ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।। प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः। ॐ।।

कृष्ण को ईश्वर मानना अनुचित है, किंतु इस धरती पर उनसे बड़ा कोई ईश्वर तुल्य नहीं है, इसीलिए उन्हें पूर्ण अवतार कहा गया है। कृष्ण ही गुरु और सखा हैं। कृष्ण ही भगवान है अन्य कोई भगवान नहीं। कृष्ण हैं राजनीति, धर्म, दर्शन और योग का पूर्ण वक्तव्य। कृष्ण को जानना और उन्हीं की भक्ति करना ही हिंदुत्व का भक्ति मार्ग है। अन्य की भक्ति सिर्फ भ्रम, भटकाव और निर्णयहीनता के मार्ग पर ले जाती है। भजगोविंदम मूढ़मते।

कृष्ण जन्म

पुराणों अनुसार आठवें अवतार के रूप में विष्णु ने यह अवतार आठवें मनु वैवस्वत के मन्वंतर के अट्ठाईसवें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में जन्म लिया था। उनका जन्म भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की रात्रि के सात मुहूर्त निकल गए और आठवाँ उपस्थित हुआ तभी आधी रात के समय सबसे शुभ लग्न उपस्थित हुआ। उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में लगभग 3112 ईसा पूर्व (अर्थात आज से 5121 वर्ष पूर्व) को हुआ हुआ। ज्योतिषियों अनुसार रात 12 बजे उस वक्त शून्य काल था।



कृष्ण जीवन :
 श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है वही इतिहास सिद्ध है बाकी सभी विस्तार, अलंकार और श्रृंगार की बातें हैं। वेदों के गोपी, गोपि‍का और रास का गलत अर्थ निकाले जाने के कारण भागवत और ब्रह्मवैवर्त सहित अन्य पुराणों में उनके जीवन चरित्र को श्रृंगारिक रूप दिया गया है। श्रीकृष्ण ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं, जो अपने कर्मों से मनुष्य से भगवान या महामानव हो गए न कि ईश्वर। न वे सृष्टि रचयिता हैं और न ही सृष्टिपालक। वे तो महामानव हैं।

श्रीकृष्ण शिक्षा-दीक्षा : 
योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने वेद और योग की शिक्षा और दीक्षा उज्जैन स्थित महर्षि सांदिपनी के आश्रम में रह कर हासिल की थी। वह योग में पारगत थे तथा योग द्वारा जो भी सिद्धियाँ होती है वह स्वत: ही उन्हें प्राप्य थी। सिद्धियों से पार भी जगत है वह उस जगत की चर्चा गीता में करते हैं। गीता मानती है कि चमत्कार धर्म नहीं है। स्थितप्रज्ञ हो जाना ही धर्म है।

महाभारत के कृष्ण
श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है वही इतिहास सिद्ध है बाकी सभी विस्तार, अलंकार और श्रृंगार की बातें हैं।
कृष्ण लीलाएँ : 
कृष्ण के जीवन में बहुत रोचकता और उथल-पुथल रही है। बाल्यकाल में वे दुनिया के सर्वाधिक नटखट बालक रहे, तो किशोर अवस्था में गोपियों के साथ पनघट पर नृत्य करना और बाँसुरी बजाना उनके जीवन का सबसे रोचक प्रसंग है। कुछ और बड़े हुए तो मथुरा में कंस का वध कर प्रजा को अत्याचारी राजा कंस से मुक्त करने के उपरांत कृष्ण ने अपने माता-पिता को भी कारागार से मुक्त कराया। इसके अलावा कृष्ण ने पूतना, शकटासुर, यमलार्जुन मोक्ष, कलिय-दमन, धेनुक, प्रलंब, अरिष्ट आदि राक्षसों का संहार किया था। श्रीकृष्ण ही ऐसे थे जो इस पृथ्वी पर सोलह कलाओं से पूर्ण होकर अवतरित हुए थे। और उनमें सभी तरह की शक्तियाँ थी।

कृष्ण पत्नी और प्रेमिका : 
कृष्ण को चाहने वाली अनेकों गोपियाँ और प्रेमिकाएँ थी। कृष्ण-भक्त कवियों ने अपने काव्य में गोपी-कृष्ण की रासलीला को प्रमुख स्थान दिया है। पुराणों में गोपी-कृष्ण के प्रेम संबंधों को आध्यात्मिक और अति श्रांगारिक रूप दिया गया है। महाभारत में यह आध्यात्मिक रूप नहीं मिलता।

रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती आदि कृष्णकी विवाहिता पत्नियाँ हैं। राधा, ललिता आदि उनकी प्रेमिकाएँ थी। उक्त सभी को सखियाँ भी कहा जाता है। राधा की कुछ सखियाँ भी कृष्ण से प्रेम करती थी जिनके नाम निम्न है:- चित्रा, सुदेवी, ललिता, विशाखा, चम्पकलता, तुंगविद्या, इन्दुलेखा, रग्डदेवी और सुदेवी हैं। ब्रह्मवैवर्त्त पुराण अनुसार कृष्ण की कुछ ही प्रेमिकाएँ थी जिनके नाम इस तरह है:- चन्द्रावली, श्यामा, शैव्या, पद्या, राधा, ललिता, विशाखा तथा भद्रा।

कर्म योगी कृष्ण : 
गीता में कर्म योग का बहुत महत्व है। गीता में कर्म बंधन से मुक्ति के साधन बताएँ हैं। कर्मों से मुक्ति नहीं, कर्मों के जो बंधन है उससे मुक्ति। कर्म बंधन अर्थात हम जो भी कर्म करते हैं उससे जो शरीर और मन पर प्रभाव पड़ता है उस प्रभाव के बंधन से मुक्ति आवश्यक है।

कृष्ण ने जो भी कार्य किया उसे अपना कर्म समझा, अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद सभी का उपयोग किया, क्योंकि वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पूर्ण जीते थे और पूरी जिम्मेदारी के साथ उसका पालन करते थे। न अतीत में और न भविष्य में, जहाँ हैं वहीं पूरी सघनता से जीना ही उनका उद्देश्य रहा।

कृष्ण निवास : 
गोकुल, वृंदावन और द्वारिका में कृष्ण ने अपने जीवन के कई महत्वपूर्ण क्षण गुजारे। पूरे भारतवर्ष में कृष्ण अनेकों स्थान पर गए। वे जहाँ-जहाँ भी गए उक्त स्थान से जुड़ी उनकी गाथाएँ प्रचलित है लेकिन मथुरा उनकी जन्मभूमि होने के कारण हिंदू धर्म का प्रमुख तीर्थ स्थल है।

महाभारत का युद्ध :
 कौरवों और पांडवों के बीच हस्तिनापुर की गद्दी के लिए कुरुक्षेत्र में विश्व का प्रथम विश्वयुद्ध हुआ था। कुरुक्षेत्र हरियाणा प्रान्त का एक जिला है। मान्यता है कि यहीं भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था।

कृष्ण इस युद्ध में पांडवों के साथ थे। आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ। नवीनतम शोधानुसार यह युद्ध 3067 ई. पूर्व हुआ था। इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात भगवान कृष्ण ने देह छोड़ दी थी। तभी से कलियुग का आरम्भ माना जाता है।

कृष्ण जन्म और मृत्यु के समय ग्रह-नक्षत्रों की जो स्थिति थी उस आधार पर ज्योतिषियों अनुसार कृष्ण की आयु 119-33 वर्ष आँकी गई है। उनकी मृत्यु एक बहेलिए के तीर के लगने से हुई थी।

गीता प्रवचन : कृष्ण ने महाभारत युद्ध के दौरान महाराजा पांडु एवं रानी कुंती के तीसरे पुत्र अर्जुन को जो उपदेश दिया वह गीता के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वेदों का सार है उपनिषद और उपनिषदों के सार को गीता कहा गया है। ऋषि वेदव्यास महाभारत ग्रंथ के रचयिता थे। गीता महाभारत के भीष्मपर्व का हिस्सा है।

स्वयं भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि युद्ध क्षेत्र में जो ज्ञान मैंने तुझे दिया था उस वक्त मैं योगयुक्त था। अत: उस अवस्था में परमात्मा की बात कहते हुए, वह परमात्मा के प्रतिनिधि बनते हुए परमात्मा के लिए मैं, मेरा, मुझे इत्यादि शब्दों का प्रयोग करते हैं इससे यह आशय नहीं कि वे खुद परमात्मा हैं या उनमें किसी प्रकार का अहंकार है।

द्वारिका निर्माण :
 कंस वध के बाद श्रीकृष्ण ने गुजरात के समुद्र के तट पर द्वारिका का निर्माण कराया और वहाँ एक नए राज्य की स्थापना की। कालांतर में यह नगरी समुद्र में डूब गई, जिसके कुछ अवशेष अभी हाल में ही खोजे गए हैं। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदापीठ भी यहीं पर स्थित है। हिंदुओं को चार धामों में से एक द्वारिका धाम को द्वारिकापुरी मोक्ष तीर्थ कहा जाता है। स्कंदपुराण में श्रीद्वारिका महात्म्य का वर्णन मिलता है।

जैन धर्म : 
जैन धर्म के २२वें तीर्थंकर अरिष्ट नेमिनाथ भगवान जो कृष्ण के चचेरे भाई थे, कृष्ण इनके पास बैठकर इनके प्रवचन सुना करते थे। जैन धर्म ने कृष्ण को उनके त्रैषठ शलाका पुरुषों में शामिल किया है, जो बारह नारायणों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि अगली चौबीसी में कृष्ण जैनियों के प्रथम तीर्थंकर होंगे।

''उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात पूजते हैं। परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।''-कृष्ण

कृष्ण और उनका जीवन
भज गोविंदम मूढ़मते...
कर्मों में कुशलता है योग-कृष्ण



कृष्ण

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भगवान विष्णु से जुड़ी दिलचस्प बातें

भगवान विष्णु से जुड़ी दिलचस्प बातें

जानिए भगवान विष्णु से जुड़ी वे दिलचस्प बातें, जो शायद आप भी नहीं जानते!!
हिन्दू धर्मशास्त्रों के मुताबिक भगवान विष्णु जगत का पालन करने वाले देवता है। भगवान विष्णु का स्वरूप सात्विक यानी शांत, आनंदमयी और कोमल बताया गया है। वहीं दूसरी ओर भगवान विष्णु के भयानक और कालस्वरूप शेषनाग पर आनंद मुद्रा में शयन करते हुए भी दर्शन किए जा सकते हैं।
भगवान विष्णु के इसी स्वरूप के लिए शास्त्रों में लिखा गया है -
'शान्ताकारं भुजगशयनं' 
यानी शांत स्वरूप और भुजंग यानी शेषनाग पर शयन करने वाले देवता भगवान विष्णु।
भगवान विष्णु के इस अनूठे स्वरूप पर गौर करें तो यह प्रश्न या तर्क भी जेहन में आता है कि आखिर काल के साये में रहकर भी क्या कोई बिना किसी बेचैनी के शयन कर सकता हैं? इसी तरह भगवान विष्णु के इस रूप व शक्तियों से जुड़ी कई बातों हैं, जिनका संबंध इंसानी ज़िंदगी से भी जुड़ा है। 
क्या है भगवान विष्णु के शेषनाग पर सोने से जुड़ा रहस्य?
दरअसल, जिंदगी का हर पल कर्तव्य और जिम्मेदारियों से जुड़ा होता है। इनमें पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक दायित्व अहम होते हैं। किंतु इन दायित्वों को पूरा करने के साथ ही अनेक समस्याओं व परेशानियों का सिलसिला भी चलता रहता है, जो कालरूपी नाग की तरह भय, बेचैनी और चिन्ताएं पैदा करता है। इनसे कईं मौकों पर व्यक्ति टूटकर बिखर भी जाता है।
भगवान विष्णु का शांत स्वरूप यही कहता है कि ऐसे बुरे वक्त में संयम, धीरज के साथ मजबूत दिल और ठंडा दिमाग रखकर जिंदगी की तमाम मुश्किलों पर काबू पाया जा सकता है। तभी विपरीत समय भी आपके अनुकूल हो जाएगा। ऐसा व्यक्ति सही मायनों में पुरूषार्थी कहलाएगा।
इस तरह विपरीत हालातों में भी शांत, स्थिर, निर्भय व निश्चित मन और मस्तिष्क के साथ अपने धर्म का पालन यानी जिम्मेदारियों को पूरा करना ही विष्णु के भुजंग या शेषनाग पर शयन का प्रतीक है।
क्यों भगवान विष्णु का नाम है 'नारायण' ?
जगतपालक भगवान विष्णु को “नारायण” भी पुकारा जाता है। सांसारिक जीवन के लिए तो नारायण नाम की महिमा इतनी ज्यादा बताई गई है कि इस नाम का केवल स्मरण भी सारे दुःख व कलह दूर करने वाला बताया गया है। पौराणिक प्रसंगों में भगवान विष्णु के परम भक्त देवर्षि नारद क नारायण-नारायण भजना भी इस नाम की महिमा उजागर करता है। इसी तरह भगवान विष्णु के कई नाम स्वरूप व शक्तियों के साथ नारायण शब्द जोड़कर ही बोले जाते हैं। जैसे – सत्यनारायण, अनंतनारायण, लक्ष्मीनारायण, शेषनारायण, ध्रुवनारायण आदि।
इस तरह नारायण शब्द की महिंमा तो सभी सुनते और मानते हैं, किंतु कई लोग भगवान विष्णु को नारायण क्यों पुकारा जाता है, नहीं जानते। यहां बताए जा रहे हैं भगवान विष्णु के नारायण नाम होने से जुड़े खास वजहें –
असल में, पौराणिक मान्यता है कि जल, भगवान विष्णु के चरणों से ही पैदा हुआ। गंगा नदी का नाम “विष्णुपादोदकी’ यानी भगवान विष्णु के चरणों से निकली भी इस बात को उजागर करता है। वहीं पानी को नीर या नार कहा जाता है तो वहीं जगतपालक के रहने की जगह यानी अयन क्षीरसागर यानी जल में ही है। इस तरह नार और अयन शब्द मिलकर नारायण नाम बनता है। यानी जल में रहने वाले या जल के देवता। जल को देवता मानने के पीछे यह भी एक वजह है।
पौराणिक प्रसंगों पर गौर भी करें तो भगवान विष्णु के दशावतारों में पहले तीन अवतारों (मत्स्य, कच्छप व वराह) का संबंध भी किसी न किसी रूप में जल से ही रहा। 
जानिए क्या है "हरि" नाम का दिलचस्प अर्थ 
सनातन धर्म में भी ईश्वर के गुण, स्वरूप और दिव्य शक्तियों के आधार पर तीन रूप माने गए हैं। यह तीन रूप त्रिदेव यानि ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहलाते हैं।
इनमें भगवान विष्णु को जगत का पालक माना गया है। श्रीविष्णु को आनंद स्वरूप यानी सुख देने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है। आपने भगवान विष्णु का 'हरि' नाम भी कई बार जाने-अनजाने बोला और सुना होगा। किंतु यहां बताए जा रहे इसी नाम के कुछ रोचक अर्थों से संभवतः अब तक आप भी अनजान होंगे। ये मतलब जानकर आप यह नाम बार-बार बोलने का कोई मौका चूकना नहीं चाहेंगे –
शास्त्रों के मुताबिक भगवान विष्णु के 'हरि' नाम का शाब्दिक मतलब हरण करने या चुरा लेने वाला होता है। कहा गया है कि 'हरि: हरति पापानि' जिससे यह साफ है कि हरि पाप या दु:ख हरने वाले देवता है। सरल शब्दों में 'हरि' अज्ञान और उससे पैदा होने वाले कलह को हरते या दूर कर देते हैं।
'हरि' नाम को लेकर एक रोचक बात भी बताई गई है, जिसके मुताबिक हरि को ऐश्वर्य और भोग हरने वाला भी माना है। चूंकि भौतिक सुख, वैभव और वासनाएं व्यक्ति को भगवान और भक्ति से दूर करती है। ऐसे में हरि नाम स्मरण से भक्त इन सुखों से दूर हो प्रेम, भक्ति और अंत में भगवान से जुड़ जाता है।
यही वजह है कि 'हरि' नाम को धार्मिक और व्यावहारिक रूप से सुख और शांति का महामंत्र माना गया है

भगवान विष्णु से जुड़ी दिलचस्प बातें

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Saturday, November 14, 2015


हर बात को तुम भूलो भले माँ बाप को मत भूलना

माँ बाप  को मत भूलना।


हर बात को तुम भूलो भले, माँ बाप को मत भूलना।
उपकार इनके लाखों है, इस बात को मत भूलना॥

धरती देवों को पूजा, भगवान को लाख मनाया है,
तब तेरी सूरत पायी है, संसार में तुझ को बुलाया है।
इन पावन लोगो के दिलों को पथ्थर बन मत तोडना,
हर बात को तुम भूलो भले, माँ बाप को मत भूलना॥

अपने ही पेट को काटा है, और तेरी काया सजाया है,
अपना हर कौर खिलाया तुझे, तब तेरी भूख मिटाई है।
इन अमृत देने वालो के जीवन ज़हर मत घोलना,
हर बात को तुम भूलो भले, माँ बाप को मत भूलना॥

जो चीज भी तुमने मांगी है, वो सब कुछ तुमने पाया है,
हर जिद को लगा सीने से बड़ा तुमसे नेह जताया है।
इन प्यार लुटाने वालो का तुम प्रेम प्यार मत भूलना,
हर बात को तुम भूलो भले, माँ बाप को मत भूलना॥

चाहे लाख कमाई धन दौलत, यह बंगला कोठी बनाई है,
माँ बाप बिना न खुश है तेरे, बेकार यह कमाई है।
यह लाख नहीं यह ख़ाक है सब, इस राज को मत भूलना,
हर बात को तुम भूलो भले, माँ बाप मत भूलना॥

गीले में सदा ही सोए हैं, सूखे में तुझ को सुलाया है,
बाहों का बना कर के झूला, तुझ दिन और रात झुलाया है।
इन निर्मल निश्छल आँखों में इक आंसू भी मत घोलना,
हर बात को तुम भूलो भले, माँ बाप मत भूलना॥

हर बात को तुम भूलो भले, माँ बाप को मत भूलना।
उपकार इनके लाखों है, इस बात को मत भूलना॥

माँ बाप को मत भूलना।

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