Saturday, December 26, 2015

।।जय श्री राधे कृष्ण।।
श्यामसुन्दर मोर पंख क्यों लगाते है

श्यामसुन्दर मोर पंख क्यों लगाते है?

सारे देवताओं में सबसे ज्यादा श्रृंगार प्रिय है भगवान कृष्ण। उनके भक्त हमेशा उन्हें नए कपड़ों और आभूषणों से लादे रखते हैं। कृष्ण गृहस्थी और संसार के देवता हैं कई बार मन में सवाल उठता है कि तरह-तरह के आभूषण पहनने वाले कृष्ण मोर-मुकुट क्यों धारण करते हैं? उनके मुकुट में हमेशा मोर का ही पंख क्यों लगाया जाता है?
इसका पहला कारण तो यह है कि मोर ही अकेला एक ऐसा प्राणी है, जो ब्रह्मचर्य को धारण करता है, जब मोर प्रसन्न होता है तो वह अपने पंखो को फैला कर नाचता है. और जब नाचते-नाचते मस्त हो जाता है, तो उसकी आँखों से आँसू गिरते है और मोरनी इन आँसू को पीती है और इससे ही गर्भ धारण करती है,मोर में कही भी वासना का लेश भी नही है,और जिसके जीवन में वासना नहीं, भगवान उसे अपने शीश पर धारण कर लेते है.
वास्तव में श्री कृष्ण का मोर मुकुट कई बातों का प्रतिनिधित्व करता है, यह कई तरह के संकेत हमारे जीवन में लाता है.अगर इसे ठीक से समझा जाए तो कृष्ण का मोर-मुकुट ही हमें जीवन की कई सच्चाइयों से अवगत कराता है. दरअसल मोर का पंख अपनी सुंदरता के कारण प्रसिद्ध है. मोर मुकुट के जरिए श्रीकृष्ण यह संदेश देते हैं कि जीवन में भी वैसे ही रंग है जैसे मोर के पंख में है. कभी बहुत गहरे रंग होते हैं यानी दुख और मुसीबत होती है तो कभी एकदम हल्के रंग यानी सुख और समृद्धि भी होती है.जीवन से जो मिले उसे सिर से लगा लें यानी सहर्ष स्वीकार कर लें.
तीसरा कारण भी है, दरअसल इस मोर-मुकुट से श्रीकृष्ण शत्रु और मित्र के प्रति समभाव का संदेश भी देते हैं. बलराम जो कि शेषनाग के अवतार माने जाते हैं, वे श्रीकृष्ण के बड़े भाई हैं. वहीं मोर जो नागों का शत्रु है वह भी श्रीकृष्ण के सिर पर विराजित है. यही विरोधाभास ही श्रीकृष्ण के भगवान होने का प्रमाण भी है कि वे शत्रु और मित्र के प्रति समभाव रखते हैं जय श्री कृष्ण
ऐसा भी कहते है कि राधा रानी के महलों में मोर थे और वे उन्हें नचाया करती थी जव वे ताल ठोकती तो मोर भी मस्त होकर राधा रानी जी के इशारों पर नाचने लग जाती एक बार मोर मस्त होकर नाच रही थी कृष्ण भी वहाँ आ गए और नाचने लगे तभी मोर का एक पंख गिरा तो श्यामसुन्दर ने झट उसे उठाया और राधा रानी जी का कृपा प्रसाद समझकर अपने शीश पर धारण कर लिया।

श्यामसुन्दर मोर पंख क्यों लगाते है

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Monday, December 21, 2015

आइए जानते हैं कितनी तरह के होते हैं तिलक

आइए जानते हैं कितनी तरह के होते हैं तिलक


माथे पर तिलक लगाने का क्या महत्व है?

शायद भारत के सिवा और कहीं भी मस्तक पर तिलक लगाने की प्रथा प्रचलित नहीं है। यह रिवाज अत्यंत प्राचीन है। माना जाता है कि मनुष्य के मस्तक के मध्य में विष्णु भगवान का निवास होता है, और तिलक ठीक इसी स्थान पर लगाया जाता है
तिलक हमारे शरीर को एक मंदिर की भाँति अंकित करता है, शुद्ध करता है और बुरे प्रभावों से हमारी रक्षा भी करता है। इस तिलक को हम स्वयं देखें या कोई और देखे तो उसे स्वतः ही श्री कृष्ण का स्मरण हो आता है। गोपी चन्दन तिलक के माहात्म्य का वर्णन विस्तार रूप में गर्ग-संहिता के छठवें स्कंध, पन्द्रहवें अध्याय में किया गया है। उसके अतिरिक्त कई अन्य शास्त्रों में भी इसके माहात्म्य का उल्लेख मिलता है।

कुछ इस प्रकार हैं:


अगर कोई वैष्णव जो उर्धव-पुन्ड्र लगा कर किसी के घर भोजन करता है, तो उस घर के २० पीढ़ियों को मैं (परम पुरुषोत्तम भगवान) घोर नरकों से निकाल लेता हूँ। – (हरी-भक्तिविलास ४.२०३, ब्रह्माण्ड पुराण से उद्धृत)

हे पक्षीराज! (गरुड़) जिसके माथे पर गोपी-चन्दन का तिलक अंकित होता है, उसे कोई गृह-नक्षत्र, यक्ष, भूत-पिशाच, सर्प आदि हानि नहीं पहुंचा सकते।       – (हरी-भक्ति विलास ४.२३८, गरुड़ पुराण से उद्धृत)

जिन भक्तों के गले में तुलसी या कमल की कंठी-माला हो, कन्धों पर शंख-चक्र अंकित हों, और तिलक शरीर के बारह स्थानों पर चिन्हित हो, वे समस्त ब्रह्माण्ड को पवित्र करते हैं । – पद्म पुराण

तिलक कृष्ण के प्रति हमारे समर्पण का एक बाह्य प्रतीक है। इसका आकार और उपयोग की हुयी सामग्री,हर सम्प्रदाय या आत्म-समर्पण की प्रक्रिया पर निर्भर करती है।

पद्म पुराण के उत्तर खंड में भगवान शिव, पार्वती जी से कहते हैं कि वैष्णवों के “V” तिलक के बीच में जो स्थान है उसमे लक्ष्मी एवं नारायण का वास है। इसलिए जो भी शरीर इन तिलकों से सजा होगा उसे श्री विष्णु  के मंदिर के समान समझना चाहिए ।
पद्म पुराण में एक और स्थान पर:
वाम्-पार्श्वे स्थितो ब्रह्मा
दक्षिणे च सदाशिवः
मध्ये विष्णुम् विजनियात
तस्मान् मध्यम न लेपयेत्
तिलक के बायीं ओर ब्रह्मा जी विराजमान हैं, दाहिनी ओर सदाशिव परन्तु सबको यह ज्ञात होना चाहिए कि मध्य में श्री विष्णु का स्थान है। इसलिए मध्य भाग में कुछ लेपना नहीं चाहिए।

बायीं हथेली पर थोड़ा सा जल लेकर उस पर गोपी-चन्दन को रगड़ें। तिलक बनाते समय पद्म पुराण में वर्णित निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें:

ललाटे केशवं ध्यायेन
नारायणम् अथोदरे
वक्ष-स्थले माधवम् तु 
गोविन्दम कंठ-कुपके 
विष्णुम् च दक्षिणे कुक्षौ 
बहौ च मधुसूदनम् 
त्रिविक्रमम् कन्धरे तु 
वामनम् वाम्-पार्श्वके 
श्रीधरम वाम्-बहौ तु 
ऋषिकेशम् च कंधरे 
पृष्ठे-तु पद्मनाभम च 
कत्यम् दमोदरम् न्यसेत् 
तत प्रक्षालन-तोयं तु 
वसुदेवेति मूर्धनि

गौड़ीय संप्रदाय में तिलक सामन्यतया गोपी-चन्दन से ही किया जाता है। कुछ भक्त वृन्दावन की रज से भी तिलक करते हैं। यह तिलक मूलतः मध्व तिलक के समान ही है। परन्तु इसमें दो अंतर पाये जाते हैं । श्री चैतन्य महाप्रभु ने कलियुग में नाम-संकीर्तन यज्ञ को यज्ञ-कुण्ड में होम से अधिक प्रधानता दी, इस कारण तिलक में भी बीच की काली रेखा नहीं लगायी जाती। दूसरा अंतर है भगवान श्री कृष्ण को समर्पण की प्रक्रिया। गौड़ीय संप्रदाय में सदैव श्रीमती राधारानी की प्रत्यक्ष सेवा से अधिक, एक सेवक भाव में परोक्ष रूप से सेवा को महत्व दिया जाता है । इस दास भाव को इंगित करने के लिए मध्व संप्रदाय जैसा लाल बिंदु न लगाकर भगवान के चरणों में तुलसी आकार बनाकर तुलसी महारानी की भावना को दर्शाया जाता है, ताकि उनकी कृपा प्राप्त कर हम भी श्री श्री राधा-कृष्ण की शुद्ध भक्ति विकसित कर सकें ।
किसी भी स्थिति में, तिलक का परम उद्देश्य अपने आप को पवित्र और भगवान के मंदिर के रूप में शरीर को चिन्हित करने के लिए है । शास्त्र विस्तार से यह निर्दिष्ट नहीं करते कि तिलक किस ढंग से किये जाने चाहिए। यह अधिकतर आचार्यों द्वारा शास्त्रों में वर्णित सामान्य प्रक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए बनायीं गयी हैं ।

माथे पर – ॐ केशवाय नमः
नाभि के ऊपर – ॐ नारायणाय नमः
वक्ष-स्थल – ॐ माधवाय नमः
कंठ – ॐ गोविन्दाय नमः
उदर के दाहिनी ओर – ॐ विष्णवे नमः
दाहिनी भुजा – ॐ मधुसूदनाय नमः
दाहिना कन्धा – ॐ त्रिविक्रमाय नमः
उदर के बायीं ओर – ॐ वामनाय नमः
बायीं भुजा – ॐ श्रीधराय नमः
बायां कन्धा – ॐ ऋषिकेशाय नमः
पीठ का ऊपरी भाग – ॐ पद्मनाभाय नमः
पीठ का निचला भाग – ॐ दामोदराय नमः
अंत में जो भी गोपी-चन्दन बचे उसे ॐ वासुदेवाय नमः का उच्चारण करते हुए शिखा में पोंछ लेना चाहिए।

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मोक्षदा एकादशी(गीता जयंती)

मोक्षदा एकादशी(गीता जयंती)


पद्मपुराणमें भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं-इस दिन तुलसी की मंजरी, धूप-दीप आदि से भगवान दामोदर का पूजन करना चाहिए। मोक्षदाएकादशी बडे-बडे पातकों का नाश करने वाली है। इस दिन उपवास रखकर श्रीहरिके नाम का संकीर्तन, भक्तिगीत, नृत्य करते हुए रात्रि में जागरण करें।

पूर्वकाल में वैखानस नामक राजा ने पर्वत मुनि के द्वारा बताए जाने पर अपने पितरोंकी मुक्ति के उद्देश्य से इस एकादशी का सविधि व्रत किया था। इस व्रत के पुण्य-प्रताप से राजा वैखानस के पितरोंका नरक से उद्धार हो गया। जो इस कल्याणमयीमोक्षदा एकादशी का व्रत करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। प्राणियों को भवबंधन से मुक्ति देने वाली यह एकादशी चिन्तामणि के समान समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली है। मोक्षदा एकादशी की पौराणिक कथा पढने-सुनने से वाजपेययज्ञ का पुण्यफलमिलता है।

मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन ही कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीताका उपदेश दिया था। अत:यह तिथि गीता जयंती के नाम से विख्यात हो गई। इस दिन से गीता-पाठ का अनुष्ठान प्रारंभ करें तथा प्रतिदिन थोडी देर गीता अवश्य पढें। गीतारूपीसूर्य के प्रकाश से अज्ञानरूपीअंधकार नष्ट हो जाएगा।
श्रीमद्भागवत गीता और श्रीमद्भागवत पुराण के आधार पर उस परम सनातन नियम को व्यक्त किया गया है। मोक्षदा एकादशी को श्री कृष्ण का पूजन कर व्रत रखने का विधान है इस व्रत को करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ग्रह शांति के लिए इस व्रत को करने से उत्तम फलों की प्राप्ति होती है। घर पर मंडरा रहे संकटों के बादल समाप्त होते हैं और स्थिर लक्ष्मी का वास होता है।

मोक्ष प्रदान करता है ये व्रत

महाभारत के युद्ध के समय जब अर्जुन मोहग्रस्त हो गए थे तब भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश देकर अर्जुन के मोह का निवारण किया था। उस दिन मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी थी। तभी से इस एकादशी को मोक्षदा एकादशी कहा जाता है। धर्मग्रंथों के अनुसार, इस दिन भगवान दामोदर की विधि-विधान से पूजा करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
मोक्षदा एकादशी पर श्रीकृष्ण द्वारा कहे गए गीता के उपदेश से जिस प्रकार अर्जुन का मोहभंग हुआ था, वैसे ही इस एकादशी के प्रभाव से व्रती को लोभ, मोह, द्वेष और समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है। पद्म पुराण में ऐसा उल्लेख आया है कि इस एकादशी के व्रत के प्रभाव से जाने-अनजाने में किए गए सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, पुनर्जन्म से मुक्ति मिलती है और पितरों को सद्गति मिलती है। माना जाता है कि इस व्रत की केवल कथा सुनने से ही हजारों यज्ञ का फल मिलता है

क्या करें

1 सुख प्राप्ति के लिए श्री नाराय़ण के चित्र पर सिंदूर चढ़ाएं।

2 धन प्राप्ति के लिए श्री भगवान मधुसूदन के चित्र पर कमल गट्टे चढ़ाएं।

3 पराक्रम बढ़ाने के लिए श्री हरि के चित्र पर तुलसी पत्र चढ़ाएं।

4 गृह क्लेश से मुक्ति पाने के लिए श्री बाल गोपाल को दही का भोग लगाएं।

5 प्रेम में सफलता के लिए श्री राधा-कृष्ण पर रोली चढ़ाएं।

6 रोग मुक्ति के लिए श्री हरि पर मूंग चढ़ाएं।

7 सुखी दांपत्य के लिए लक्ष्मी-नारायण पर अबीर चढ़ाएं।

8 दुर्घटनाओं से सुरक्षा के लिए भगवान बांके बिहारी पर लाल चंदन चढ़ाएं।

9 सौभाग्य प्राप्ति के लिए भगवान विष्णु के चित्र पर हल्दी चढ़ाएं।

10 व्यवसायिक सफलता के लिए श्री कृष्ण पर नीले फूल चढ़ाएं।

11 लाभ प्रप्ति के लिए श्री नारायण पर लोहबान से धूप करें।

12 हानि से बचने के लिए भगवान विष्णु के चित्र पर पीले फूल चढ़ाएं।

 क्या न करें

1 पान न खाएं।

2 किसी की निन्दा न करें।

3 क्रोध न करें।

4 झूठ न बोलें।

5 दिन के समय न सोएं।

6 तेल में बना हुआ खाना न खाएं।

7 कांसे के बर्तनों का इस्तेमाल न करें।

8 व्रत न रख सकें तो प्याज, लहसुन और चावल का सेवन न करें।

मोक्षदा एकादशी(गीता जयंती)

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Thursday, December 17, 2015

टेढ़े कान्हा

टेढ़े कान्हा

एक बार की बात है - वृंदावन का एक साधू अयोध्या की गलियों में राधे कृष्ण - राधे कृष्ण जप रहा था । अयोध्या का एक साधू वहां से गुजरा तो राधे कृष्ण राधे कृष्ण सुनकर उस साधू को बोला - अरे जपना ही है तो सीता राम जपो, क्या उस टेढ़े का नाम जपते हो ?
वृन्दावन का साधू भडक कर बोला - ज़रा जुबान संभाल कर बात करो, हमारी जुबान भी पान भी खिलाती हैं तो लात भी खिलाती है । तुमने मेरे इष्ट को टेढ़ा कैसे बोला ?
अयोध्या वाला साधू बोला इसमें गलत क्या है ? तुम्हारे कन्हैया तो हैं ही टेढ़े । कुछ भी लिख कर देख लो- 
उनका नाम टेढ़ा - कृष्ण
उनका धाम टेढ़ा - वृन्दावन
वृन्दावन वाला साधू बोला चलो मान लिया, पर उनका काम भी टेढ़ा है और वो खुद भी टेढ़ा है, ये तुम कैसे कह रहे हो ?
अयोध्या वाला साधू बोला - अच्छा अब ये भी बताना पडेगा ? तो सुन - 
जमुना में नहाती गोपियों के कपड़े चुराना, रास रचाना, माखन चुराना - ये कौन सीधे लोगों के काम हैं ? और आज तक ये बता कभी किसी ने उसे सीधे खडे देखा है कभी ?
वृन्दावन के साधू को बड़ी बेइज्जती महसूस हुई , और सीधे जा पहुंचा बिहारी जी के मंदिर । अपना डंडा डोरिया पटक कर बोला - इतने साल तक खूब उल्लू बनाया लाला तुमने ।  ये लो अपनी लुकटी, ये लो अपनी कमरिया, और पटक कर बोला ये अपनी सोटी भी संभालो । हम तो चले अयोध्या राम जी की शरण में । और सब पटक कर साधू चल दिये ।अब बिहारी जी मंद मंद मुस्कुराते हुए उसके पीछे पीछे । साधू की बाँह पकड कर बोले अरे " भई तुझे किसी ने गलत भडका दिया है " पर साधू नही माना तो बोले, अच्छा जाना है तो तेरी मरजी , पर ये तो बता राम जी सीधे और मै टेढ़ा कैसे ? कहते हुए बिहारी जी कूंए की तरफ नहाने चल दिये ।

वृन्दवन वाला साधू गुस्से से बोला -

" नाम आपका टेढ़ा- कृष्ण, 
धाम आपका टेढ़ा- वृन्दावन, 

काम तो सारे टेढ़े- कभी किसी के कपडे चुरा, कभी गोपियों के वस्त्र चुरा, 
और सीधे तुझे कभी किसी ने खड़े होते नहीं देखा। तेरा सीधा है किया"। 
अयोध्या वाले साधू से हुई सारी झैं झैं और बइज़्जती की सारी भड़ास निकाल दी।

बिहारी जी मुस्कुराते रहे और चुप से अपनी बाल्टी कूँए में गिरा दी । 
फिर साधू से बोले अच्छा चला जाइये, पर जरा मदद तो कर जा, तनिक एक सरिया ला दे तो मैं अपनी बाल्टी निकाल लूं । साधू सरिया ला देता है और कृष्ण सरिये से बाल्टी निकालने की कोशिश करने लगते हैं ।
साधू बोला अब समझ आइ कि तौ मैं अकल भी ना है। अरै सीधै सरिये से बाल्टी भला कैसे निकलेगी ? 
सरिये को तनिक टेढ़ा कर, फिर देख कैसे एक बार में बाल्टी निकल आवेगी ।
बिहारी जी मुस्कुराते रहे और बोले - जब सीधापन इस छोटे से कूंए से एक छोटी सी बालटी नहीं निकाल पा रहा, तो तुम्हें इतने बडे भवसागर से कैसे पार लगा सकेगा ? अरे आज का इंसान तो इतने गहरे पापों के भवसागर में डूब चुका है कि इस से निकाल पाना मेरे जैसे टेढ़े के ही बस की है ।
" बोलो टेढ़े वृन्दावन बिहारी लाल की जय "

टेढ़े कान्हा

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कृष्ण भक्ती

कृष्ण भक्ती
भगवान श्रीकृष्ण के भक्त रसखान एक मुसलमान व्यक्ति थे। एक बार वो अपने उस्ताद के साथ मक्का मदीना, हज पर जा रहे थे, 
उनके उस्ताद ने कहा:- "देखो हिन्दुओं का तीर्थ स्थल वृन्दावन आने वाला है, वहाँ एक कालिया नाग रहता है।
मैंने सुना है नाग वृंदावन आने बाले यात्रियों को डस लेता है। इसलिये तुम सम्भल कर चलना, इधर-उधर ताक-झाँक नहीं करना, सीधे मेरे पीछे-पीछे चलना। उस्तादजी कि बातें सुनकर रसखान को कालिया नाग देखने उत्सुकता होने लगी। उन्होंने सुन रखा था वृंदावन कृष्ण धाम है, फिर यहाँ नाग लोगों को कैसे डँस सकता है?
यह सोचते हुए वो चले जा रहे थे कि बिहारीजी ने अपनी लीला प्रारम्भ करना शुरू कर दिया। प्रभु ने सोचा, देखूँ ये कब तक बिना इधर-उधर देखे बच सकता है। और फिर बिहारीजी ने अपने मुरली की प्यारी धुन छेड़ दि।
रसखान अभी बचने की कोशिश ही कर रहे थे कि प्रभु के पाँव की नुपुर भी बजने लगी। मुरली और नूपुर की रुनझुन ने ऐसा जादू किया कि रसखान को अब अपने ऊपर नियंत्रण रखना मुश्किल हो रहा था। उस्तादजी की काला नाग वाली बात भी याद आ रही थी, अब वो करे तो क्या करें। मुरली तथा नुपुर की धुनें सुन उनका मन मुग्ध हुए जा रहा था। इतने में यमुना नदी आ गयी, और रसखान देखे बिना नहीं रह सके। वहाँ श्रीबिहारीजी अपनी प्रियाजी के साथ विराजमान थे। रसखान उनकी एक झलक पाकर मतवाले हो गए। मुरलीधर के युगल छवि के दर्शन पाकर वो भूल गए कि ख़ुद कहाँ हैं, और उनके उस्तादजी कहाँ गए। रसखान अपनी सुध-बुध खो बैठे, उन्हें अपना ध्यान ही नहीं रहा। वे ब्रज की रज में लोट पोट हो रहे थे, मुँह से उनके झाग निकलने लगा।
इधर-उधर वो पागलों की तरह श्रीबिहारीजी को ढूँढने लगे। उनकी साँवली छवि उनके आँखो से हट नहीं रही थी।
परन्तु प्रभु अपनी लीला कर अन्तर्ध्यान हो गए। सखी ! 
 मोय कारौ नाग डस्यौ....
व्यापि गयौ विष नस-नस बरबस, 
उर तैं जगत खस्यौ॥
बिस बगराय, भुजंगम भीषन मृदु मधु हँसी हँस्यौ।
हँसतहिं विष अति भयौ मधुर सो, अवसर पाइ धँस्यौ॥
विष भयौ अमिय, नाग पुनि मोहन,मधु मधुरिमा लस्यौ।
करत किलोल कलित अकलन, रस-सुधा-स्रोत निकस्यौ॥
स्याम-मनहि सौं एकमेक मन अमन होइ बिकस्यौ।
कौ जानै कब लौं यौं मोहन मो महँ रह्यौ धँस्यौ॥
जाके नाम कटत भव-बन्धन, सो स्वयमेव ड्डँस्यौ।
ह्वै परतंत्र, सुतंत्र परम सो अपनेहि बंध कस्यौ॥
सखी ! मोय कारौ नाग डस्यौ.... 

थोड़ी दूर जाकर जब उस्तादजी ने पीछे मुड़कर देखा, उन्हें रसखान कहीं नज़र नहीं आया, वो वापस पीछे आए और रसखान की दशा देखकर समझ गए कि उन्हें कालिया नाग ने डँस लिया है, और अब यह रसखान हमारे किसी काम के नहीं हैं। उस्तादजी रसखान को वहीं छोड़कर हज पर चले गए। रसखान को जब होश आया तो फिर वो कृष्ण को ढूँढने लगे। आस-पास आने-जाने वाले मुसाफ़िर से पूछने लगे तुमने कहीं साँवला सलोना, जिनके हाथ में मुरली है, साथ में उनकी बेगम (श्री राधा जी) भी हैं, कही देखा है, वो कहाँ रहता है? किसी भक्त ने उनकी विरह दशा देखकर श्री बाँकेबिहारी जी के मंदिर का पता बता दिया। रसखान मंदिर गये, किन्तु उनकी दशा देखकर मंदिर के अंदर पुजारी ने प्रवेश करने नहीं दिया। वो वहीं मंदिर के बाहर तीन दिनों तक भूखे-प्यासे पड़े रहे। तीसरे दिन बाँकेबिहारीजी अपना प्रिय दूध-भात चाँदी के कटोरे में लेकर आए और उन्हें अपने हाथों से खिलाया।
जय जय श्री बाँकेबिहारी लाल की..











कृष्ण भक्ती

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श्री राधानाम 1008 माला

श्री राधानाम 1008 माला

★राधे राधे★
राधा रानी की जय महारानी की जय--
बोलो बरसाने वारी की जय जय जय--
राधा रानी की जय महारानी की जय---
श्री राधा-- राधे राधे🙏💞
श्री राधिका-- राधे राधे🙏💞
श्री कृष्णवल्लभा -राधे राधे🙏💞
श्रीकृष्णसंयुत्ता -राधे राधे🙏💞
श्री वृंदावनेश्वरी -राधे राधे🙏💞
श्री कृष्णप्रिया -राधे राधे,🙏💞
श्री मदनमोहिनी -राधे राधे🙏💞
श्री कृष्णकांता -राधे राधे🙏💞 
कृष्णानंदप्रदायिनी -राधे राधे🙏💞
श्री यशस्वनि- राधे राधे🙏💞
श्री यशोगम्या- राधे राधे🙏💞
यशोदानंदवल्लभा -राधे राधे🙏💞
दामोदरप्रिया- राधे राधे🙏💞
श्री गोपी- राधे राधे🙏💞
गोपानंदकरी -राधे राधे🙏💞
श्रीकृष्णांङवासिनी -राधे राधे🙏💞
श्री ह्रदया -राधे राधे🙏💞
श्री हरिकांता- राधे राधे🙏💞
श्री हरिप्रिया -राधे राधे🙏💞
श्री प्रधानगोपिका -राधे राधे🙏💞
श्री गोपकन्या- राधे राधे🙏💞
त्रिलोक्यसुंदरी- राधे राधे🙏💞
वृंदावनविहारिणी- राधे राधे🙏💞
विकसितमुखाम्बुजा -राधे राधे🙏💞
गोकुलानंदकर्त्री -राधे राधे🙏💞
गोकुलानंददायिनी -राधे राधे🙏💞
श्रीगतिप्रदा -राधे राधे🙏💞
श्री गीतगम्या- राधे राधे🙏💞
गमनागमनप्रिया -राधे राधे🙏💞
श्री विष्णुप्रिया -राधे राधे🙏💞
श्रीविष्णुकांता- राधे राधे🙏💞
विष्णुरंकनिवासिनी- राधे राधे🙏💞
यशोदानंदपत्नी -राधे राधे🙏💞
यशोदानंदगेहिनी -राधे राधे🙏💞
, कामारिकांता -राधे राधे🙏💞
श्री कामेषी- राधे राधे🙏💞
कामलालसविग्रह -राधे राधे🙏💞
श्री जयप्रदा -राधे राधे🙏💞
श्री जया- राधे राधे🙏💞
श्री जीवा- राधे राधे🙏💞
जीवनानंदप्रदायिनी- राधे राधे🙏💞
नंदनंदनपत्नी -राधे राधे🙏💞
वृषभानुसुता- राधे राधे🙏💞
श्री शिवा- राधे राधे🙏💞
श्री गणाध्याक्षा -राधे राधे🙏💞
श्री गवाध्याक्षा -राधे राधे, 
गवारनुत्तमागति -राधे राधे🙏💞
श्री कांचनाभा -राधे राधे🙏💞
श्री हेमगात्रा- राधे राधे🙏💞
कांचनांगदधारिणी -राधे राधे🙏💞
श्री अशोका - राधे राधे🙏💞
श्री शोकरहिता -राधे राधे🙏💞
श्री विशोका- राधे राधे ,
श्री शोकनाशिनी- राधे राधे🙏💞
श्री गायत्री- राधे राधे,श्री वेदमाता-राधे राधे🙏💞
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★ मेरी प्यारी को नाम श्री राधे--★
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कृष्ण प्यारी को नाम श्री राधे 🙏💞
हो श्री राधे श्री राधे 🙏💞
हो नंद वारी को नाम श्री राधे🙏💞
श्री वेदातीता- राधे राधे 🙏💞
श्री विदुत्तमा- राधे राधे 🙏💞
नीतिशास्त्रप्रिया- राधे राधे 🙏💞
श्री नीति -राधे राधे 🙏💞
श्री गति -राधे राधे🙏💞
श्री मति- राधे राधे🙏💞
श्री अभिष्टदा -राधे राधे🙏💞
श्री वेदप्रिया- राधे राधे🙏💞
श्रीवेदगर्भा- राधे राधे🙏💞
वेदमार्गप्रवर्धनी- राधे राधे🙏💞
श्री वेदगम्या- राधे राधे🙏💞
श्री वेदपरा -राधे राधे🙏💞
विचित्रकन्नकोज
्जवला -राधे राधे🙏💞
उज्जवलप्रदा -राधे राधे🙏💞
श्री नित्या -राधे राधे🙏💞
उज्जवलगात्रिका- राधे राधे🙏💞
श्री नंदप्रिया -राधे राधे🙏💞
नन्दसुताराध्या -राधे राध🙏💞
आनंदप्रदा- राधे राधे🙏💞
श्री शुभा- राधे राधे🙏💞
श्री शुभांगी -राधे राधे🙏💞
श्री विमलांगी -राधे राधे🙏💞
श्री विलासिनी- राधे राधे🙏💞
श्री अपराजिता -राधे राधे🙏💞
श्री जननी- राधे राधे🙏💞
श्री जन्मशून्या- राधे राधे🙏💞
जन्ममृत्युजरापहा - राधे राधे🙏💞
श्री गतिमतांगति -राधे राधे🙏💞
श्री धात्री- राधे राधे🙏💞
धात्रयानंदप्रदायिनी -राधे राधे🙏💞
जगन्नाथप्रिया -राधे राधे🙏💞
श्री शैलवासिनी- राधे राधे🙏💞
श्री हेमसुंदरी- राधे राधे🙏💞
श्री किशोरी -राधे राधे🙏💞
श्री कमला- राधे राधे🙏💞 
श्री पद्मा - राधे राधे🙏💞
श्री पद्महस्ता -राधे राधे🙏💞
श्री पयोददा -राधे राधे🙏💞
श्री पयस्वनी- राधे राधे🙏💞
श्री पयोदात्री -राधे राधे🙏💞
श्री पवित्रा- राधे राधे🙏💞
श्री सर्वमंङगला- राधे राधे🙏💞
महाजीवप्रदा- राधे राधे🙏💞
श्री कृष्णकांता -राधे राधे🙏💞
श्रीकमलसूंदरी- राधे राधे🙏💞
श्री विचित्रवासिनी -राधे राध🙏💞
,श्री चित्रवासिनी -राधे राधे🙏💞
श्री चित्ररुपिणी -राधे राधे🙏💞
,श्री निर्गुणा- राधे राधे🙏💞
सुकुलिना -राधे राधे🙏💞
श्री निष्कुलीना -राधे राधे🙏💞
श्री निराकुला- राधे राधे🙏💞
गोकुलंतरगेहा- राधे राधे🙏💞
योगानंदकरी- राधे राधे🙏💞
श्री वेणुवाद्या- राधे राधे🙏💞
श्री वेणुरति -राधे राधे🙏💞
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★हो मन भुल मत जाईयो राधा रानी के चरण--
हो राधा रानी के चरण श्यामा प्यारी के चरण--
हो मन भुल मत जाईयो राधा रानी के चरण--
मेरे मन भुल मत जाईयो राधा रानी के चरण--★
🙏💞🙏💞🙏💞
वेणुवाद्यपरायणा -राधे राधे🙏💞
गोपालस्यप्रिया - राधे राधे🙏💞
श्री सौम्यरुपा- राधे राधे🙏💞
सौम्यकुलोद्वहा- राधे राधे🙏💞
श्री मोहा मोहा- राधे राधे🙏💞
श्री विमोहा -राधे राधे🙏💞
श्रीगतिनिष्ठा- राधे राधे🙏💞
श्री गतिप्रदा- राधे राधे🙏💞
गीर्वाणवंद्या -राधे राधे🙏💞
श्री गीर्वाणा- राधे राधे🙏💞
गीर्वाणगणसेविता -राधे राधे🙏💞
श्री ललिता -राधे राधे🙏💞
श्री विशोका -राधे राधे🙏💞
श्री विशाखा -राधे राधे🙏💞
श्री चित्रमालिनी- राधे राधे🙏💞
श्री जितेन्द्रिया- राधे राधे🙏💞
श्रीशुद्धसत्वा- राधे राधे🙏💞
श्री कुलीना -राधे राधे🙏💞
श्री कुलदीपिका -राधे राधे🙏💞
श्री दीपप्रिया- राधे राधे🙏💞
श्री दीपदात्री - राधे राधे🙏💞
श्री विमला -राधे राधे🙏💞
श्री विमलोदका -राधे राधे🙏💞
कांतारवासिनी- राधे राधे🙏💞
श्री कृष्णा- राधे राधे🙏💞
कृष्णचंद्रप्रिया -राधे राधे🙏💞
श्रीमति -राधे राधे🙏💞
श्री अनुत्तरा- राधे राधे🙏💞
श्री दुखहंत्री -राधे राधे🙏💞
श्री दुखकर्त्री- राधे राधे🙏💞
श्री कुलोद्वहा- राधे राधे🙏💞
श्री लक्ष्मी -राधे राधे🙏💞
श्री धृति- राधे राधे🙏💞
श्री लज्जा -राधे राधे🙏💞
श्री कांति -राधे राधे🙏💞
श्री पुष्टि- राधे राधे🙏💞
श्री स्मृति -राधे राधे🙏💞
श्री क्षमा- राधे राधे🙏💞
क्षीरोदशायिनी -राधे राधे🙏💞
श्री देवी- राधे राधे🙏💞
देवारिकुलमर्दनी- राधे राधे🙏💞
श्री वैष्णवी -राधे राधे🙏💞
श्री महालक्ष्मी- राधे राधे🙏💞
श्री कुलपुज्या- राधे राधे🙏💞
श्री कुलप्रिया- राधे राधे🙏💞
दैत्यानासंहत्री -राधे राधे🙏💞
श्री सावित्री - राधे राधे🙏💞
श्री वेदगामिनी- राधे राधे🙏💞
श्री निरालम्बा- राधे राधे🙏💞
निरालम्बगणप्रिया- राधे राधे🙏💞
निरालम्बजनपुज्या- राधे राधे🙏💞
श्री निरालोका- राधे राधे🙏💞
श्री निराश्रया- राधे राधे🙏💞
श्री एकांगी -राधे राधे🙏💞
श्री सर्वगा -राधे राधे🙏💞
श्री सेवया -राधे राधे🙏💞
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★राधा रानी की जय महारानी की जय-
बोलो बरसाने वारी की जय जय जय--
राधा रानी की जय महारानी की जय--★
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श्री ब्रह्मपत्नी-राधे राधे🙏💞
श्री सरस्वती-राधे राधे🙏💞
श्री रासप्रिया -राधे राधे🙏💞
श्री रासगम्या -राधे राधे🙏💞
रासाधिष्ठात्री -राधे राधे🙏💞
श्री रसिका-राधे राधे🙏💞
रसिकानंदा-राधे राधे🙏💞
रासेश्वरीपरा-राधे राधे🙏💞
रासमण्डलस्था -राधे राधे🙏💞
रासमण्डलशोभिता- राधे राधे🙏💞
रासमण्डलसेवया-राधे राधे🙏💞
रासक्रीडामनोहरा-राधे राधे🙏💞
पुण्डरीकाक्षनिलया-राधे राधे🙏💞
पुण्डरीकाक्षगेहिनी-राधे राधे🙏💞
पुण्डरीकाक्षसेवया-राधे राधे🙏💞
पुण्डरीकाक्षवल्लभा -राधे राधे🙏💞
सर्वजीवेश्वरी -राधे राधे🙏💞
सर्वजीव वन्दया -राधे राधे🙏💞
श्री परात्परा -राधे राधे🙏💞
श्री प्रकृति -राधे राधे🙏💞
शंभुकांता-राधे राधे🙏💞
सदाशिवमनोहरा -राधे राधे🙏💞
श्री शुते-राधे राधे🙏💞
श्री पिपासा -राधे राधे🙏💞
श्री दया -राधे राधे🙏💞
श्री निद्रा-राधे राधे🙏💞
श्री भ्रांति -राधे राधे🙏💞
श्री श्रांति -,राधे राध🙏💞
श्री क्षमाकुला -राधे राधे🙏💞
श्री वधूरुपा -राधे राध🙏💞
श्री गोपपत्नी,-राधे राधे🙏💞
श्री भारती-राधे राधे🙏💞
श्री सिद्धयोगिनी-राधे राधे🙏💞 
श्री सत्यरुपा-राधे राधे🙏💞
श्री नित्यरुपा -राधे राधे🙏💞
श्री नित्यांगी -राधे राधे🙏💞
श्री नित्यगेहानि -राधे राधे🙏💞
श्री स्थानदात्रि -राधे राधे🙏💞
श्री महालक्ष्मी-राधे राधे🙏💞
श्री स्वयंप्रभा-राधे राधे🙏💞
श्री सिंधुकन्या -राधे राधे🙏💞
आस्थानदात्री -राधे राधे🙏💞
श्री द्वारिकावासिनी -राधे राधे🙏💞
श्री बुद्धि-राधे राधे🙏💞
श्री स्थिति -राधे राधे🙏💞
श्री स्थानरुपा -राधे राधे🙏💞
सर्वकारणकारणा -राधे राधे🙏💞
श्री भक्तप्रिया -राधे राधे🙏💞
श्री भक्तगम्या-राधे राधे🙏💞
भक्तानंदप्रदायिनी-राधे राध🙏💞
भक्तकल्पद्रुमातीता -राधे राधे🙏💞
श्री अतीतगुणा -राधे राधे🙏💞
मनोधिष्ठात्रीदेवी-राधे राधे🙏💞
कृष्णप्रेमपरायणा -राधे राधे,
श्री निरामया -राधे राधे-🙏💞
श्री सौम्यदात्री --राधे राधे🙏💞
🙏💞🙏💞🙏💞
★मेरी प्यारी को नाम श्री राधे-
कृष्ण प्यारी को नाम श्री राधे--
हो नंदवारी को नाम श्री राधे--★
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श्री मदनमोहिनी -राधे राधे🙏💞
एकानंशाशिवा -राधे राधे🙏💞
श्री क्षेमा -राधे राधे🙏💞
श्री दुर्गा -राधे राधे🙏💞
श्री दूर्गतिनाशिनी -राधे राधे🙏💞
श्री ईश्वरी -राधे राधे🙏💞
श्री सर्ववंद्या -राधे राधे🙏💞
श्री गोपनीया - राधे राधे🙏💞
श्री शुभंकरी-- राधे राधे🙏💞
सर्वभुतानांपालिनी- राधे राधे🙏💞
कामांङहारिणी-राधे राधे🙏💞
सद्योमुक्तिप्रदा -राधे राधे🙏💞
श्री वेदसारा -राधे राधे🙏💞
श्री हिमालयसुता -राधे राधे🙏💞
श्री सर्वा -राधे राधे🙏💞
श्री पार्वति-राधे राधे🙏💞
श्री गिरिजा -राधे राधे🙏💞
श्री सति- राधे राधे🙏💞
श्री दक्षकन्या- राधे राधे🙏💞
श्री देवमाता-राधे राधे🙏💞
श्री मन्दलज्जा -राधे राधे🙏💞
श्री हरेस्तनूं- राधे राधे🙏💞
वृंदारण्यप्रिया- राधे राधे🙏💞
श्री वृंदा- राधे राधे🙏💞
वृंदावनविलासिनी -राधे राधे🙏💞
श्री विलासिनी-राधे राधे🙏💞
,श्री वैष्णवी- राधे राधे,🙏💞
ब्रह्मलोकप्रतिष्ठा- राधे राधे🙏💞
श्री रुक्मणी -राधे राधे🙏💞
श्री रेवती -राधे राधे🙏💞
श्री सत्यभामा- राधे राधे🙏💞
श्री जाम्बवती -राधे राधे 🙏💞
श्री सुलक्ष्मणा- राधे राधे 🙏💞
श्री मित्रविन्दा* राधे राधे 🙏💞
श्री कालिन्दी-,राधे राधे🙏💞 
श्री जहन्युकन्या -राधे राधे🙏💞
श्री परिपुर्णा- राधे राधे🙏💞
श्री पुर्णतरा -राधे राधे🙏💞
श्री हैमवती -राधे राधे🙏💞
★ जय जय श्री राधे🙏💞
🙏💞🙏💞🙏💞
जय जय श्री श्यामा प्यारी,,🙏💞
जय हो रसिको की प्यारी--🙏💞

श्री राधानाम 1008 माला

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!! ॐ श्री परमात्मने नमः !!

!! ॐ श्री परमात्मने नमः !!

हरे कृष्णा! हरे कृष्णा! कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे राम ! हरे राम ! राम राम हरे हरे
सोलह अक्षरों का ये मंत्र, महामंत्र कहलाता है
कलयुग के दोषों से बस यही हमें बचाता है
शास्त्रों ने कहा इसके अतिरिक्त कोई उपाय नही
कलयुग में और कुछ भी हो सकता सहाय नही
सतयुग में तपस्या से पास हरि के जाते थे
त्रेता में यज्ञों से उन्हें हम पास बुलाते थे
द्वापर में करते थे लोग अर्चा-विग्रह की पूजा
कलयुग में महामंत्र के सिवा उपाय नही दूजा
इस घोर कल्मष के युग में प्रभु की कृपा है
वो बस हरी कीर्तन से ही हमें मिल जाते है
कोई फर्क नही है उनमे और उनके नाम में
महामंत्र से प्रभु को जिह्वा पे हम नचाते हैं
चित्त को हमारे शुद्ध करता है ये हरि कीर्तन
जप-जप के हरि नाम चमक जाता मन दर्पण
बड़ा ही सरल और सटीक तरिका है जीने का
न गवाए हम मौका इस अमृत्व को पीने का
बिना देर किये जहाँ हैं वही से कर दे शुरुआत
कर ले कमाई कुछ जब तक मौत करे आघात
फिर चिंता न हो कि कब मौत से पाला पड़े
जब भी प्राण छूटे दिखे बस प्रभु सामने खड़े
हरे कृष्णा ! हरे कृष्णा! कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे राम ! हरे राम ! राम राम हरे हरे
श्रीहरिः

!! ॐ श्री परमात्मने नमः !!

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Saturday, December 12, 2015

दैनिक प्रार्थना

दैनिक प्रार्थना

हे परम प्रियतम पूर्णतम पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण। तुम से विमुख होने के कारण अनादिकाल से हमने अनन्तानंत दुःख पाए एवं पा रहे हैं। पाप करते करते अन्तःकरण इतना मलिन हो चुका है कि रसिकों द्वारा यह जानने पर भी कि तुम अपनी भुजाओं को पसारे अपनी वात्सल्यमयी दृष्टि से हमारी प्रतीक्षा कर रहे हो, तुम्हारी शरण में नहीं आ पाता।
हे अशरण -शरण! तुम्हारी कृपा के बिना तुम्हें कोई पा भी नहीं सकता। ऐसी स्थिति में, हे अकारण करूण, पतितपावन श्रीकृष्ण! तुम अपनी अहैतुकी कृपा से ही हमको अपना लो।
हे करूणासागर! हम भुक्ति -मुक्ति आदि कुछ नहीं माँगते, हमें तो केवल तुम्हारे निष्काम प्रेम की ही एकमात्र चाह है।
हे नाथ! अपने विरद की ओर देखकर इस अधम को निराश न करो।
हे जीवनधन! अब बहुत हो चुका, अब तो तुम्हारे प्रेम के बिना यह जीवन मृत्यु से भी अधिक भयानक है। अतएव
प्रेमभिक्षां देहि, प्रेमभिक्षां देहि, प्रेम भिक्षां देहि।
साकेत बिहारी श्रीराघवेन्दर सरकार की जय।
वृन्दावन विहारी श्री यादवेनदर सरकार की जय।
श्रीमद् सदगुरू सरकार की जय।
जय जय श्री राधे

दैनिक प्रार्थना

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 कृष्ण और उनकी प्रेम लीलाएँ

कृष्ण और उनकी प्रेम लीलाएँ

एक समय की बात है, जब किशोरी जी को यह पता चला कि कृष्ण पूरे गोकुल में माखन चोर कहलाता है तो उन्हें बहुत बुरा लगा उन्होंने कृष्ण को चोरी छोड़ देने का बहुत आग्रह किया। पर जब ठाकुर अपनी माँ की नहीं सुनते तो अपनी प्रियतमा की कहा से सुनते। उन्होंने माखन चोरी की अपनी लीला को जारी रखा।
एक दिन राधा रानी ठाकुर को सबक सिखाने के लिए उनसे रूठ गयी। अनेक दिन बीत गए पर वो कृष्ण से मिलने नहीं आई।जब कृष्णा उन्हें मनाने गया तो वहां भी उन्होंने बात करने से इनकार कर दिया। तो अपनी राधा को मनाने के लिए इस लीलाधर को एक लीला सूझी।। ब्रज में लील्या गोदने वाली स्त्री को लालिहारण कहा जाता है। तो कृष्ण घूंघट ओढ़ कर एक लालिहारण का भेष बनाकर बरसाने की गलियों में पुकार करते हुए घूमने लगे। जब वो बरसाने, राधा रानी की ऊंची अटरिया के नीचे आये तो आवाज़ देने लगे।। मै दूर गाँव से आई हूँ, देख तुम्हारी ऊंची अटारी, दीदार की मैं प्यासी, दर्शन दो वृषभानु दुलारी। हाथ जोड़ विनंती करूँ, अर्ज मान लो हमारी, आपकी गलिन गुहार करूँ, लील्या गुदवा लो प्यारी।। जब किशोरी जी ने यह आवाज सुनी तो तुरंत विशाखा सखी को भेजा और उस लालिहारण को बुलाने के लिए कहा। घूंघट में अपने मुँह को छिपाते हुए कृष्ण किशोरी जी के सामने पहुंचे और उनका हाथ पकड़ कर बोले कि कहो सुकुमारी तुम्हारे हाथ पे किसका नाम लिखूं। तो किशोरी जी ने उत्तर दिया कि केवल हाथ पर नहीं मुझे तो पूरे  श्री अंग पर लील्या गुदवाना है और
क्या लिखवाना है, किशोरी जी बता रही हैं।। माथे पे मदन मोहन, पलकों पे पीताम्बर धारी नासिका पे नटवर, कपोलों पे कृष्ण मुरारी अधरों पे अच्युत, गर्दन पे गोवर्धन धारी कानो में केशव, भृकुटी पे चार भुजा धारी
छाती पे छलिया, और कमर पे कन्हैया जंघाओं पे जनार्दन, उदर पे ऊखल बंधैया गुदाओं पर ग्वाल, नाभि पे नाग नथैया बाहों पे लिख बनवारी, हथेली पे हलधर के भैया नखों पे लिख नारायण, पैरों पे जग पालनहारी
चरणों में चोर चित का, मन में मोर मुकुट धारी नैनो में तू गोद दे, नंदनंदन की सूरत प्यारी और
रोम रोम पे लिख दे मेरे, रसिया रास बिहारी जब ठाकुर जी ने सुना कि राधा अपने रोम रोम पर मेरा नाम लिखवाना चाहती है, तो ख़ुशी से बौरा गए प्रभू उन्हें अपनी सुध न रही, वो भूल गए कि वो एक लालिहारण के वेश में बरसाने के महल में राधा के सामने ही बैठे हैं। वो खड़े होकर जोर जोर से नाचने लगे। उनके इस व्यवहार से किशोरी जी को बड़ा आश्चर्य हुआ की इस लालिहारण को क्या हो गया। और तभी उनका घूंघट गिर गया और ☺ललिता सखी को उनकी सांवरी सूरत का दर्शन हो गया और वो जोर से बोल उठी कि अरे..... ये तो बांके बिहारी ही है। अपने प्रेम के इज़हार पर किशोरी जी बहुत लज्जित हो गयी और अब उनके पास कन्हैया को क्षमा करने के आलावा कोई रास्ता न था। ठाकुरजी भी किशोरी का अपने प्रति अपार प्रेम जानकर गदगद् और भाव विभोर हो गए ..
🙏🌹जय श्री कृष्ण🌹🙏

कृष्ण और उनकी प्रेम लीलाएँ

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गीता में श्रीकृष्ण द्वारा बताए गए सफलता के कुछ मंत्र


गीता में श्रीकृष्ण द्वारा बताए गए सफलता के कुछ मंत्र

दूरगामी सोच :

श्रीकृष्ण की ओर से बोले गए ज्ञान के श्लोकों पर आधारित भागवत गीता के अनुसार हमें सोच को संकुचित बनाने के स्थान पर दूरगामी और व्यापक बनानी चाहिए।

उदाहरण के तौर पर जब पांडव मोम के लाक्षागृह में फंस गए तो महज एक चूहा उन्हें उपहार में दिया और केवल एक चूहे के जरिए पांडवों ने लाक्षागृह से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ जीवन को सुरक्षित किया। यह दूरगामी सोच का ही परिणाम रहा।

डर के आगे जीत : 

गीता के अनुसार अगर आपके सामने समस्या विकराल बनती जा रही है और फिर भी समाधान नहीं कर पा रहे हैं तो भी हिम्मत न हारे और चिंतन करने के साथ ही समस्या का सामना करें।
मुसीबतों से घबराने की जगह उसका सामना करना ही सबसे बड़ी शक्ति है। एक बार डर को पार कर लिया तो समझो जीत आपके कदमों में।
पांडवों ने भी धर्म के सहारे युद्ध जीता था।

प्रगति पथ पर प्रशस्त :

श्रीकृष्ण ने हमेशा पांडवों से यही कहा कि पीछे हटने की बजाए प्रगति पथ पर मार्ग प्रशस्त करें। उदाहरण के तौर पर यदि एक कर्मचारी कम्पनी से लगाव होने के कारण जीवन बढिया अवसरों को छोड़ रहा है,तो यह मूर्खता है। क्योंकि अटैचमेंट टैलेन्ट को मार देता है। ऐसे में अगर आपको ज्यादा स्कोप,स्थान परिवर्तन में दिखाई देता है,तो फिर स्थान परिवर्तन करने में ही फायदा है।

ऋषिकेश बने : 

श्रीकृष्ण को ऋषिकेश भी कहा जाता है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है ऋषक और ईश यानी इन्द्रियों को वश में करने वाला स्वामी। श्रीकृष्ण की भक्ति करने वाला व्यक्ति बुद्धि पर विजय प्राप्त करने में सक्षम रहता है। गीता के अनुसार हवा को वश में करना तो फिर भी संभव है, लेकिन दिमाग को वश में कर पाना असंभव है। बावजूद इसके जिसका मन पर कंट्रोल हो गया वह आसानी से हर जगह सफलता हासिल कर सकता है।

स्मृति,ज्ञान और बुद्धि :

गीता में श्रीकृष्ण ने एक श्लोक के माध्यम से उल्लेखित किया है कि किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए स्मृति और बुद्धि का स्वस्थ होना अनिवार्य है। बुद्धि मतलब अच्छी चीजों को परखने की क्षमता, ज्ञान मतलब सभी पहलुओं की बारीकी से जानकारी और स्मृति यानी बुरी को भुलाने और अच्छी को याद करने की क्षमता। यदि इन तीनों पर युवा फोकस करें तो जीवन की सत्तर फीसदी कठिनाइयों से छुटकारा पाया जा सकता है।
कृष्ण का व्यक्तित्व अनूठा है। अभी तक हम उन्हें अलग-अलग देखते आए हैं। कोई योगेश्वर कृष्ण कहता है,कोई भगवान,तो कोई राधा का प्रेमी,कोई द्रोपदी का सखा,अर्जुन के गुरु,तो कोई कुछ और।
सूरदास के कृष्ण बालक है,महाभारत के कृष्ण गुरु है तो भागवत के कृष्ण इससे भिन्न है। सब उन्हें अपने-अपने नजरिए से देखते हैं।
भिन्न-भिन्न लोग भिन्न-भिन्न रूप में उनकी पूजा करते हैं। कृष्ण संपूर्ण जीवन के समर्थक है। वे पल-पल आनन्द से जीने की प्रेरणा देते हैं।
बस जरूरत है पूरे मनोयोग से उस पर अमल करने की और आगे बढ़ने की। यकीन मानिए सफलता आपके कदम चूमेगी।

जय श्री कृष्ण
राधे राधे

गीता में श्रीकृष्ण द्वारा बताए गए सफलता के कुछ मंत्र

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Saturday, December 5, 2015

श्री कृष्ण  परमधाम


 श्री कृष्ण परमधाम

भगवान राम और श्री कृष्ण विष्णु के अवतार हैं यह बात शास्त्रों और पुराणों में लिखा है। लेकिन राम पृथ्वी त्याग करने के बाद विष्णु में लीन हो गए लेकिन कृष्ण का अपना एक लोक है जिसे गोलोक कहते हैं। गीता और ब्रह्मसंहिता में गोलोक के सौन्दर्य और नजारों का वर्णन किया गया है।

गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।

अर्थात्, भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्रमा द्वारा, न ही अग्नि या बिजली द्वारा प्रकाशित होता है। जो लोग यहां पहुंच जाते हैं वह इस भौतिक जगत में फिर कभी लौटकर नहीं आते हैं।

गोलोक में प्रकाश के लिए न तो चन्द्रमा की आवश्यक्ता है न सूर्य की। यहां तो परब्रह्म की ज्योति प्रकाशमान है, इन्हीं की ज्योति से गोलोक प्रकाशित है। यहां पर राधा और कृष्ण नित्य विराजमान रहते हैं और कृष्ण की बंशी की मधुर तान से संपूर्ण लोक आनंदित और स्वस्थ रहता है।

मंद-मंद सुगंधित हवाएं चलती हैं। भूख-प्यास, रोग, दोष, चिंता का यहां कहीं नामोनिशान नहीं है। गौएं और श्री कृष्ण की सखी एवं सखाएं इनकी सेवा करके आनंदित रहते हैं। यहां न किसी को स्वामी भाव का अभिमान है और न किसी को दास भाव की वेदना है।

इसलिए कहा गया है कि मनुष्य जिसे भगवान ने मध्य लोक यानी पृथ्वी पर भेजा है उसे गोलोक की प्राप्ति के लिए श्री कृष्ण की भक्ति करनी चाहिए। जो इनकी भक्ति भावना से विमुख होता है वह अधोगति को प्राप्त होता है यानी नीच योनियों में अर्थात कीट, पतंग और पशु-पक्षियों के रूप में जन्म लेकर दुःख भोगते हैं।

हे अर्जुन! जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वही मेरा परम धाम है ॥6॥ गीता अध्याय 15, श्लोक

हे अर्जुन! ब्रह्मलोक सहीत सभी लोक पुनरावर्ती हैं, परन्तु हे कुन्तीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित होने से अनित्य हैं॥16॥ गीता अध्याय 8, श्लोक 16 

हे अर्जुन! अव्यक्त 'अक्षर' इस नाम से कहा गया है, उसी अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परमगति कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते, वह मेरा परम धाम है॥21॥ गीताअध्याय 8, श्लोक 21.

* परमधाम *

(1) यहां के रहिवासी श्रीकृष्ण हैँ।

(2) यहां से पुर्नजन्म पतन नहीँ हैँ।

(3) यहां का सुख नित्य अक्षय हैँ।

(4) ये स्थान चैतन के उपर हैँ।

(5) परमधाम सर्वोच्च यानी सबके उपर हैँ।

(6) परमधाम स्वंयम् प्रकाशित हैँ।

श्री कृष्ण परमधाम

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Friday, December 4, 2015

भगवान श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम

भगवान श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम


हम बताना चाहते हैं कि श्रीकृष्ण एक साधरण मानव थे, लेकिन वे अपनी यौगिक साधना और क्षमता से असाधारण मानव बन गए थे। उनमें दिव्य शक्तियां थीं और उन पर परमेश्वर की कृपा थी। उनको परशुराम ने सुदर्शन चक्र दिया था और उनकी कई देवी और देवताओं ने सहायता की थी।
उन्होंने अन्याय के खिलाफ काम किया और धर्म तथा राज्य को एक नई व्यवस्था दी। महाभारत युद्ध के पश्‍चात्य वे 35 वर्षों तक जिंदा रहे और द्वारिका में अपनी आठ पत्नियों के साथ सुख पूर्वक जीवन व्यतीत किया। यहां प्रस्तुत है उनकी प्रत्येक पत्नी से उत्पन्न हुए 80 संतानों के नाम। हालांकि संतानें तो उनकी और भी थीं।

1.रुक्मिणी : प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारू, चरुगुप्त, भद्रचारू, चारुचंद्र, विचारू और चारू।
2.सत्यभामा : भानु, सुभानु, स्वरभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, वृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु।
3.जाम्बवंती : साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, शतजित, सहस्त्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड़ और क्रतु।
4.सत्या : वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु और कुन्ति।
5.कालिंदी : श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास और सोमक।
6.लक्ष्मणा : प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजित।
7.मित्रविन्दा : वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महांस, पावन, वह्नि और क्षुधि।
8.भद्रा : संग्रामजित, वृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक।


भगवान श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम

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कौन थे कृष्ण के बड़े शत्रु


कौन थे कृष्ण के बड़े शत्रु

शिशुपाल :

 शिशुपाल 3 जन्मों से श्रीकृष्ण से बैर-भाव रखे हुआ था। इस जन्म में भी वह विष्णु के पीछे पड़ गया। दरअसल, शिशुपाल भगवान विष्णु का वही द्वारपाल था जिसे कि सनकादि मुनियों ने शाप दिया था।
वे जय और विजय अपने पहले जन्म में हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष, दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण तथा अंतिम तीसरे जन्म में कंस और शिशुपाल बने। कृष्ण ने प्रण किया था कि मैं शिशुपाल के 100 अपमान क्षमा करूंगा अर्थात उसे सुधरने के 100 मौके दूंगा।

शिशुपाल का वध : 

एक बार की बात है कि जरासंघ का वध करने के बाद श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम इन्द्रप्रस्थ लौट आए, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारी करवा दी। उस यज्ञ के ऋतिज आचार्य होते थे।

यज्ञ में युधिष्ठिर ने भगवान वेद व्यास, भारद्वाज, सुनत्तु, गौतम, असित, वशिष्ठ, च्यवन, कण्डव, मैत्रेय, कवष, जित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिन, क्रतु, पैल, पाराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतहोत्र, मधुद्वंदा, वीरसेन, अकृतब्रण आदि सभी को आमंत्रित किया। इसके अलावा सभी देशों के राजाधिराज को भी बुलाया गया।

यज्ञ पूजा के बाद यज्ञ की शुरुआत के लिए समस्त सभासदों में इस विषय पर विचार होने लगा कि सबसे पहले किस देवता की पूजा की जाए? तब सहदेवजी उठकर बोले- श्रीकष्ण ही सभी के देव हैं जिन्हें ब्रह्मा और शंकर भी पूजते हैं, उन्हीं को सबसे पहले पूजा जाए।
पांडु पुत्र सहदेव के वचन सुनकर सभी ने उनके कथन की प्रशंसा की। भीष्म पितामह ने स्वयं अनुमोदन करते हुए सहदेव का समर्थन किया। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने शास्त्रोक्त विधि से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन आरंभ किया।
इस कार्य से चेदिराज शिशुपाल अपने आसन से उठ खड़ा हुआ और बोला, 'हे सभासदों! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कालवश सभी की मति मारी गई है। क्या इस बालक सहदेव से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति इस सभा में नहीं है, जो इस बालक की हां में हां मिलाकर अयोग्य व्यक्ति की पूजा स्वीकार कर ली गई है? क्या इस कृष्ण से आयु, बल तथा बुद्धि में और कोई भी बड़ा नहीं है? क्या इस गाय चराने वाल ग्वाले के समान कोई और यहां नहीं है? क्या कौआ हविश्यान्न ले सकता है? क्या गीदड़ सिंह का भाग प्राप्त कर सकता है? न इसका कोई कुल है, न जाति, न ही इसका कोई वर्ण है। राजा ययाति के शाप के कारण राजवंशियों ने इस यदुवंश को वैसे ही बहिष्कृत कर रखा है। यह जरासंघ के डर से मथुरा त्यागकर समुद्र में जा छिपा था। भला यह किस प्रकार अग्रपूजा पाने का अधिकारी है?'
इस प्रकार शिशुपाल श्रीकृष्ण को अपमानित कर गाली देने लगा। यह सुनकर शिशुपाल को मार डालने के लिए पांडव, मत्स्य, केकय और सृचयवर्षा नरपति क्रोधित होकर हाथों में हथियार ले उठ खड़े हुए, किंतु श्रीकृष्ण ने उन सभी को रोक दिया। वहां वाद-विवाद होने लगा, परंतु शिशुपाल को इससे कोई घबराहट न हुई। कृष्ण ने सभी को शांत कर यज्ञ कार्य शुरू करने को कहा।

किंतु शिशुपाल को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। उसने फिर से श्रीकृष्ण को ललकारते हुए गाली दी, तब श्रीकृष्ण ने गरजते हुए कहा, 'बस शिशुपाल! मैंने तेरे एक सौ अपशब्दों को क्षमा करने की प्रतिज्ञा की थी इसीलिए अब तक तेरे प्राण बचे रहे। अब तक सौ पूरे हो चुके हैं। अभी भी तुम खुद को बचा सकने में सक्षम हो। शांत होकर यहां से चले जाओ या चुप बैठ जाएं, इसी में तुम्हारी भलाई है।'

लेकिन शिशुपाल पर श्रीकृष्ण की चेतावनी का कोई असर नहीं हुआ अतः उसने काल के वश होकर अपनी तलवार निकालते हुए श्रीकृष्ण को फिर से गाली दी। शिशुपाल के मुख से अपशब्द के निकलते ही श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र चला दिया और पलक झपकते ही शिशुपाल का सिर कटकर गिर गया। उसके शरीर से एक ज्योति निकलकर भगवान श्रीकृष्ण के भीतर समा गई।

वचन क्यों दिया था? : शिशुपाल कृष्ण की बुआ का लड़का था। जब शिशुपाल का जन्म हुआ तब उसके 3 नेत्र तथा 4 भुजाएं थीं। वह गधे की तरह रो रहा था। माता-पिता उससे घबराकर उसका परित्याग कर देना चाहते थे, लेकिन तभी आकाशवाणी हुई कि बालक बहुत वीर होगा तथा उसकी मृत्यु का कारण वह व्यक्ति होगा जिसकी गोद में जाने पर बालक अपने भाल स्थित नेत्र तथा दो भुजाओं का परित्याग कर देगा।

इस आकाशवाणी और उसके जन्म के विषय में जानकर अनेक वीर राजा उसे देखने आए। शिशुपाल के पिता ने बारी-बारी से सभी वीरों और राजाओं की गोद में बालक को दिया। अंत में शिशुपाल के ममेरे भाई श्रीकृष्ण की गोद में जाते ही उसकी 2 भुजाएं पृथ्वी पर गिर गईं तथा ललाटवर्ती नेत्र ललाट में विलीन हो गया। इस पर बालक की माता ने दु:खी होकर श्रीकृष्ण से उसके प्राणों की रक्षा की मांग की।

श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं इसके 100 अपराधों को क्षमा करने का वचन देता हूं। कालांतर में शिशुपाल ने अनेक बार श्रीकृष्ण को अपमानित किया और उनको गाली दी, लेकिन श्रीकृष्ण ने उन्हें हर बार क्षमा कर दिया।

शिशुपाल क्यों करता था अपमान? : क्योंकि शिशुपाल रुक्मणि से विवाह करना चाहता था। रुक्मणि के भाई रुक्म का वह परम मित्र था। रुक्म अपनी बहन का विवाह शिशुपाल से करना चाहता था और रुक्मणि के माता-पिता रुक्मणि का विवाह श्रीकृष्ण के साथ करना चाहते थे, लेकिन रुक्म ने शिशुपाल के साथ रिश्ता तय कर विवाह की तैयारियां शुरू कर दी थीं। कृष्ण रुक्मणि का हरण कर ले आए थे। ‍

पौंड्रक :

 चुनार देश का प्राचीन नाम करुपदेश था। वहां के राजा का नाम पौंड्रक था। कुछ मानते हैं कि पुंड्र देश का राजा होने से इसे पौंड्रक कहते थे। कुछ मानते हैं कि वह काशी नरेश ही था। चेदि देश में यह ‘पुरुषोत्तम’ नाम से सुविख्यात था। इसके पिता का नाम वसुदेव था। यह द्रौपदी स्वयंवर में उपस्थित था। कौशिकी नदी की तट पर किरात, वंग, एवं पुंड्र देशों पर इसका स्वामित्व था। यह मूर्ख एवं अविचारी था।

पौंड्रक को उसके मूर्ख और चापलूस मित्रों ने यह बताया कि असल में वही परमात्मा वासुदेव और वही विष्णु का अवतार है, मथुरा का राजा कृष्ण नहीं। पुराणों में उसके नकली कृष्ण का रूप धारण करने की कथा आती है। 

राजा पौंड्रक नकली चक्र, शंख, तलवार, मोर मुकुट, कौस्तुभ मणि, पीले वस्त्र पहनकर खुद को कृष्ण कहता था। एक दिन उसने भगवान कृष्ण को यह संदेश भी भेजा था कि ‘पृथ्वी के समस्त लोगों पर अनुग्रह कर उनका उद्धार करने के लिए मैंने वासुदेव नाम से अवतार लिया है। भगवान वासुदेव का नाम एवं वेषधारण करने का अधिकार केवल मेरा है। इन चिह्रों पर तेरा कोई भी अधिकार नहीं है। तुम इन चिह्रों को एवं नाम को तुरंत ही छोड़ दो, वरना युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।’

बहुत समय तक श्रीकृष्ण उसकी बातों और हरकतों को नजरअंदाज करते रहे, बाद में उसकी ये सब बातें अधिक सहन नहीं हुईं। उन्होंने प्रत्युत्तर भेजा, ‘तेरा संपूर्ण विनाश करके, मैं तेरे सारे गर्व का परिहार शीघ्र ही करूंगा।' 

यह सुनकर, पौंड्रक कृष्ण के विरुद्ध युद्ध की तैयारी शुरू करने लगा। अपने मित्र काशीराज की सहायता प्राप्त करने के लिए यह काशीनगर गया। यह सुनते ही कृष्ण ने ससैन्य काशीदेश पर आक्रमण किया।

कृष्ण आक्रमण कर रहे हैं- यह देखकर पौंड्रक और काशीराज अपनी अपनी सेना लेकर नगर की सीमा पर आए। युद्ध के समय पौंड्रक ने शंख, चक्र, गदा, धनुष, वनमाला, रेशमी पीतांबर, उत्तरीय वस्त्र, मूल्यवान आभूषण आदि धारण किया था एवं यह गरूड़ पर आरूढ़ था।

नाटकीय ढंग से युद्धभूमि में प्रविष्ट हुए इस ‘नकली कृष्ण’ को देखकर भगवान कृष्ण को अत्यंत हंसी आई। इसके बाद युद्ध हुआ और पौंड्रक का वध कर श्रीकृष्ण पुन: द्वारिका चले गए।

बाद में बदले की भावना से पौंड्रक के पुत्र सुदक्षण ने कृष्ण का वध करने के लिए मारण-पुरश्चरण किया, लेकिन द्वारिका की ओर गई वह आग की लपटरूप कृत्या ही पुन: काशी में आकर सुदक्षणा की मौत का कारण बन गई। उसने काशी नरेश पुत्र सुदक्षण को ही भस्म कर दिया।


कौन थे कृष्ण के बड़े शत्रु

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श्री कृष्ण ने ऐसा कौन सा पाप किया राधा ने कहा मत छूना मुझे

श्री कृष्ण ने ऐसा कौन सा पाप किया राधा ने कहा मत छूना मुझे

भगवान श्री कृष्ण और राधा का प्रेम अनोखा है। दोनों एक दूसरे के हृदय में रहते हैं। लेकिन एक बार श्री कृष्ण ने ऐसा काम किया कि राधा और गोपियां कृष्ण से दूर-दूर रहने लगी। राधा ने कृष्ण से यह भी कहा कि मत छूना मुझे।
इस घटना के बाद कृष्ण ने जो किया उसकी निशानी आज भी गोवर्धन पर्वत की तलहटी में कृष्ण कुंड के रुप में मौजूद है। इस कुंड के निर्माण का कारण राधा कृष्ण यह संवाद माना जाता है जब राधा ने कृष्ण को अपना स्पर्श करने से मना कर दिया था।
इसकी वजह यह थी कि, भगवान श्री कृष्ण ने कंश के भेजे हुए असुर अरिष्टासुर का वध कर दिया था। अरिष्टासुर बैल के रुप में व्रजवासियों को कष्ट देने आया था। बैल की हत्या करने के कारण राधा और गोपियां कृष्ण को गौ का हत्यारा मान रही थी।
कृष्ण ने राधा को खूब समझाने का प्रयास किया कि उसने बैल की नहीं बल्कि असुर का वध किया है। कृष्ण के समझाने के बाद भी जब राधा नहीं मानी तो श्री कृष्ण ने अपनी ऐड़ी जमीन पर पटकी और वहां जल की धारा बहने लगी।
इस जलधारा से एक कुंड बन गया। श्री कृष्ण ने तीर्थों से कहा कि आप सभी यहां आइए। कृष्ण के आदेश से सभी तीर्थ राधा कृष्ण के सामने उपस्थिति हो गए। इसके बाद सभी कुंड में प्रवेश कर गए। श्री कृष्ण ने इस कुंड में स्नान किया और कहा कि इस कुंड में स्नान करने वाले को एक ही स्थान पर सभी तीर्थों में स्नान करने का पुण्य प्राप्त हो जाएगा।

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श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़ी रोचक घटनाएं

श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़ी रोचक घटनाएं
'न कोई मरता है और न ही कोई मारता है, सभी निमित्त मात्र हैं... सभी प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर के थे, मरने के उपरांत वे बिना शरीर वाले हो जाएंगे। यह तो बीच में ही शरीर वाले देखे जाते हैं, फिर इनका शोक क्यों करते हो।' -गीता

भारत की सात प्राचीन और पवित्र नगरियों में से एक है मथुरा। मथुरा का महत्व उसी तरह है जिस तरह की ईसाइयों के लिए बेथलहेम, बौद्धों के लिए लुम्बिनी और मुस्लिमों के लिए मदीना। मथुरा में भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था।
किसी ने कृष्ण के मामा कंस को बताया कि वसुदेव और देवकी की संतान ही उसकी मृत्यु का कारण होगी अत: उसने वसुदेव और देवकी दोनों को जेल में बंद कर दिया। कंस उक्त दोनों की संतान के उत्पन्न होते ही मार डालता था।
भविष्यवाणी के अनुसार विष्णु को देवकी के गर्भ से कृष्ण के रूप में जन्म लेना था, तो उन्होंने अपने 8वें अवतार के रूप में 8वें मनु वैवस्वत के मन्वंतर के 28वें द्वापर में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की रात्रि के 7 मुहूर्त निकल गए और 8वां उपस्थित हुआ तभी आधी रात के समय सबसे शुभ लग्न उपस्थित हुआ। उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में लगभग 3112 ईसा पूर्व (अर्थात आज से 5126 वर्ष पूर्व) को हुआ हुआ। ज्योतिषियों के अनुसार रात 12 बजे उस वक्त शून्य काल था।

1. यमुना के पार गोकुल :

जब कृष्ण का जन्म हुआ तो जेल के सभी संतरी माया द्वारा गहरी नींद में सो गए। जेल के दरवाजे स्वत: ही खुल गए। उस वक्त भारी बारिश हो रही थी। यमुना में उफान था। उस बारिश में ही वसुदेव ने नन्हे कृष्ण को एक टोकरी में रखा और उस टोकरी को लेकर वे जेल से बाहर निकल आए। कुछ दूरी पर ही यमुना नदी थी। उन्हें उस पार जाना था लेकिन कैसे? तभी चमत्कार हुआ। यमुना के जल ने भगवान के चरण छुए और फिर उसका जल दो हिस्सों में बंट गया और इस पार से उस पार रास्ता बन गया।
कहते हैं कि वसुदेव कृष्ण को यमुना के उस पार गोकुल में अपने मित्र नंदगोप के यहां ले गए। वहां पर नंद की पत्नी यशोदा को भी एक कन्या उत्पन्न हुई थी। वसुदेव श्रीकृष्ण को यशोदा के पास सुलाकर उस कन्या को ले गए। गोकुल मां यशोदा का मायका था और नंदगांव में उनका ससुराल। श्रीकृष्ण का लालन-पालन यशोदा व नंद ने किया।
गोकुल यमुना के तट पर बसा एक गांव है, जहां सभी नंदों की गायों का निवास स्थान था। नंद मथुरा के आसपास गोकुल और नंदगांव में रहने वाले आभीर गोपों के मुखिया थे। यहीं पर वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी ने बलराम को जन्म दिया था। बलराम देवकी के 7वें गर्भ में थे जिन्हें योगमाया ने आकर्षित करके रोहिणी के गर्भ में डाल दिया था। यह स्थान गोप लोगों का था। मथुरा से गोकुल की दूरी महज 12 किलोमीटर है।

2. पूतना का वध : 

जब कंस को पता चला कि छलपूर्वक वसुदेव और देवकी ने अपने पुत्र को कहीं ओर भेज दिया है तो उसने चारों दिशाओं में अपने अनुचरों को भेज दिया और कह दिया कि अमुक-अमुक समय पर जितने भी बालकों का जन्म हुआ हो उनका वध कर दिया जाए। पहली बार में ही कंस के अनुचरों को पता चल गया कि हो न हो वह बालक यमुना के उस पार ही छोड़ा गया है।
बाल्यकाल में ही श्रीकृष्ण ने अपने मामा के द्वारा भेजे गए अनेक राक्षसों को मार डाला और उसके सभी कुप्रयासों को विफल कर दिया। सबसे पहले उन्होंने पूतना को मारा। पूतना को उन्होंने नंदबाबा के घर से कुछ दूरी पर ही मारा। नंदगांव में कंस का आतंक बढ़ने लगा तो नंदबाबा ने वहां से पलायन कर दिया। पलायन करने के और भी कई कारण रहे होंगे।

3 वृंदावन आगमन : 

नंदगांव में कंस के खतरे के चलते ही नंदबाबा दोनों भाइयों को वहां से दूसरे गांव वृंदावन लेकर चले गए। वृंदावन कृष्ण की लीलाओं का प्रमुख स्थान है। वृंदावन मथुरा से 14 किलोमीटर दूर है।
श्रीमद्भागवत और विष्णु पुराण के अनुसार कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंदजी कुटुंबियों और सजातियों के साथ नंदगांव से वृंदावन में आकर बस गए थे। विष्णु पुराण में वृंदावन में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन भी है। यहां श्रीकृष्‍ण ने कालिया का दमन किया था।

4. कालिया और धनुक का वध :

 फिर कुछ बड़ा होकर उन्होंने कदंब वन में बलराम के साथ मिलकर कालिया नाग का वध किया। फिर इसी प्रकार वहीं ताल वन में दैत्य जाति का धनुक नाम का अत्याचारी व्यक्ति रहता था जिसका बलदेव ने वध कर डाला। उक्त दोनों घटनाओं से कृष्ण और बलदेव की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी। इसके अलावा यहां पर उन्होंने यमलार्जुन, शकटासुर वध, प्रलंब वध और अरिष्ट वध किया।

5 रासलीला : 

मान्यता है कि यहीं पर श्रीकृष्‍ण और राधा एक घाट पर युगल स्नान करते थे। इससे पहले कृष्ण की राधा से मुलाकात गोकुल के पास संकेत तीर्थ पर हुई थी। वृंदावन में ही श्रीकृष्ण और गोपियां आंख-मिचौनी का खेल खेलते थे। यहीं पर श्रीकृष्ण और उनके सभी सखा और सखियां मिलकर रासलीला अर्थात तीज-त्योहारों पर नृत्य-उत्सव का आयोजन करते थे। कृष्ण की शरारतों के कारण उन्हें बांकेबिहारी कहा जाता है। यहां बांकेबिहारीजी का मंदिर है। यहां पर यमुना घाट के प्रत्येक घाट से भगवान कृष्ण की कथा जुड़ी हुई है।

6. गोवर्धन पर्वत : 

वृंदावन के पास ही गोवर्धन पर्वत है। यहीं पर कृष्ण ने लोगों को इंद्र के प्रकोप से बचाया था। उस काल में लोग इंद्र से डरकर उसकी पूजा करते थे। कृष्ण ने उनके इस डर को बाहर निकाला और सिर्फ परमेश्वर के प्रति ही प्रार्थना करने की शिक्षा दी। नंद इन्द्र की पूजा का उत्सव मनाया करते थे। श्रीकृष्ण ने इसे बंद करके कार्तिक मास में अन्नकूट का उत्सव आंरभ कराया।

7. कंस का वध :

 वृंदावन में कालिया और धनुक का सामना करने के कारण दोनों भाइयों की ख्याति के चलते कंस समझ गया था कि ज्योतिष भविष्यवाणी अनुसार इतने बलशाली किशोर तो वसुदेव और देवकी के पुत्र ही हो सकते हैं। तब कंस ने दोनों भाइयों को पहलवानी के लिए निमंत्रण ‍दिया, क्योंकि कंस चाहता था कि इन्हें पहलवानों के हाथों मरवा दिया जाए, लेकिन दोनों भाइयों ने पहलवानों के शिरोमणि चाणूर और मुष्टिक को मारकर कंस को पकड़ लिया और सबके देखते-देखते ही उसको भी मार दिया।
कंस का वध करने के पश्चात कृष्ण और बलदेव ने कंस के पिता उग्रसेन को पुन: राजा बना दिया। उग्रसेन के 9 पुत्र थे, उनमें कंस ज्येष्ठ था। उनके नाम हैं- न्यग्रोध, सुनामा, कंक, शंकु अजभू, राष्ट्रपाल, युद्धमुष्टि और सुमुष्टिद। उनके कंसा, कंसवती, सतन्तू, राष्ट्रपाली और कंका नाम की 5 बहनें थीं। अपनी संतानों सहित उग्रसेनकुकुर-वंश में उत्पन्न हुए कहे जाते हैं और उन्होंने व्रजनाभ के शासन संभालने के पूर्व तक राज किया।

कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्घटनाओं का सामना करने तथा किशोरावस्था में कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोकप्रिय हो गए थे। कंस के वध के बाद उनका अज्ञातवास भी समाप्त हुआ और उनके सहित राज्य का भय भी। तब उनके पिता और पालक ने दोनों भाइयों की शिक्षा और दीक्षा का इंतजाम किया।

8. गुरु का आश्रम : 

दोनों भाइयों को अस्त्र, शस्त्र और शास्त्री की शिक्षा के लिए सांदीपनि के आश्रम भेजा गया, जहां पहुंचकर कृष्ण-बलराम ने विधिवत दीक्षा ली और अन्य शास्त्रों के साथ धनुर्विद्या में विशेष दक्षता प्राप्त की। वहीं उनकी सुदामा ब्राह्मण से भेंट हुई, जो उनका गुरु-भाई हुआ।
इस आश्रम में कृष्ण ने अपने जीवन के कुछ वर्ष बिताकर कई सारी घटनाओं से सामना किया और यहां भी उनको प्रसिद्धि मिली। शिक्षा और दीक्षा हासिल करने के बाद कृष्ण और बलराम पुन: मथुरा लौट आए और फिर वे मथुरा के सेना और शासन का कार्य देखने लगे। उग्रसेन जो मथुरा के राजा थे, वे कृष्ण के नाना थे। कंस के मारे जाने के बाद उसका श्वसुर और मगध का सम्राट जरासंध क्रुद्ध हो चला था।


9. जरासंध का आक्रमण

जब कंस का वध हो गया तो मगध का सबसे शक्तिशाली सम्राट जरासंध क्रोधित हो उठा, क्योंकि कंस उसका दामाद था। जरासंघ कंस का श्वसुर था। कंस की पत्नी मगध नरेश जरासंघ को बार-बार इस बात के लिए उकसाती थी कि कंस का बदला लेना है। इस कारण जरासंघ ने मथुरा के राज्य को हड़पने के लिए 17 बार आक्रमण किए। हर बार उसके आक्रमण को असफल कर दिया जाता था। फिर एक दिन उसने कालयवन के साथ मिलकर भयंकर आक्रमण की योजना बनाई।
कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश के नाम संदेश भेजा और कालयवन को युद्ध के लिए एक दिन का समय दिया। श्रीकृष्ण ने उत्तर में भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूं लड़ाएं? कालयवन ने स्वीकार कर लिया।
कृष्ण और कालयवन का युद्ध हुआ और कृष्‍ण रणभूमि छोड़कर भागने लगे, तो कालयवन भी उनके पीछे भागा। भागते-भागते कृष्ण एक गुफा में चले गए। कालयवन भी वहीं घुस गया। गुफा में कालयवन ने एक दूसरे मनुष्य को सोते हुए देखा। कालयवन ने उसे कृष्ण समझकर कसकर लात मार दी और वह मनुष्य उठ पड़ा।
उसने जैसे ही आंखें खोलीं और इधर-उधर देखने लगा, तब सामने उसे कालयवन दिखाई दिया। कालयवन उसके देखने से तत्काल ही जलकर भस्म हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले। वे इक्ष्वाकु वंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे, जो तपस्वी और प्रतापी थे। उनके देखते ही कालयवन भस्म हो गया। मुचुकुन्द को वरदान था कि जो भी उन्हें उठाएगा वह उनके देखते ही भस्म हो जाएगा।

10. महाभिनिष्क्रमण : 

कालयवन के मारे जाने के बाद हड़कंप मच गया था। अब विदेशी भी श्रीकृष्ण के शत्रु हो चले थे। तब अंतत: कृष्ण ने अपने 18 कुल के सजातियों को मथुरा छोड़ देने पर राजी कर लिया। वे सब मथुरा छोड़कर रैवत पर्वत के समीप कुशस्थली पुरी (द्वारिका) में जाकर बस गए। -(महाभारत मौसल- 14.43-50)

यह इतिहास का सबसे बड़ा माइग्रेशन था। उग्रसेन, अक्रूर, बलराम सहित लाखों की तादाद में कृष्ण के कुल के यादव अपने पूर्व स्थान द्वारका लौट गए। रह गए तो सिर्फ वे जो कृष्ण कुल से नहीं थे। लाखों की संख्या में मथुरा मंडल के लोगों ने उनको रोकने का प्रयास किया ज‍िनमें दूसरे यदुवंशी भी थे। सभी की आंखों में आंसू थे, लेकिन कृष्ण को तो जाना ही था। सौराष्ट्र में पहले से ही यदुवंशी लोग रहते थे। यह उनके प्राचीन पूर्वजों की भूमि थी। इस निष्क्रमण के उपरांत मथुरा की आबादी बहुत कम रह गई होगी। कृष्ण के जाने के बाद मथुरा पर जरासंध का शासन हो गया।

11. द्वारिका : 

द्वारिका में रहकर कृष्ण ने सुखपूर्वक जीवन बिताया। यहीं रहकर उन्होंने हस्तिनापुर की राजनीति में अपनी गतिविधियां बढ़ाईं और 8 स्त्रियों से विवाह कर एक नए कुल और साम्राज्य की स्थापना की। द्वारिका वैकुंठ के समान थी। कृष्ण की 8 पत्नियां थीं:- रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती, मित्रवन्दा, सत्या, लक्ष्मणा, भद्रा और कालिंदी। इनसे उनका कई पुत्र और पुत्रियों की प्राप्ति हुई।
इसके बाद कृष्ण ने भौमासुर (नरकासुर) द्वारा बंधक बनाई गई लगभग 16 हजार स्त्रियों को मुक्त कराकर उन्हें द्वारिका में शरण दी। नरकासुर प्रागज्योतिषपुर का दैत्यराज था जिसने इंद्र को हराकर उनको उनकी नगरी से बाहर निकाल दिया था। नरकासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे थे। वह वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीनकर त्रिलोक विजयी हो गया था। वह पृथ्वी की हजारों सुन्दर कन्याओं का अपहरण कर उनको बंदी बनाकर उनका शोषण करता था। मु‍क्त कराई गई ये सभी स्त्रियां कृष्ण की पत्नियां या रखैल नहीं थीं बल्कि उनकी सखियां और शिष्या थीं, जो उनके राज्य में सुखपूर्वक स्वतंत्रतापूर्वक अपना अपना जीवन-यापन अपने तरीके से कर रही थीं।

पांडवों से कृष्ण की मुलाकात : 

एक दिन पंचाल के राजा द्रुपद द्वारा द्रौपदी-स्वयंवर का आयोजन किया गया। उस काल में पांडव के वनवास के 2 साल में से अज्ञातवास का एक साल बीत चुका था। कृष्ण भी उस स्वयंवर में गए। वहां उनकी बुआ (कुं‍ती) के लड़के पांडव भी मौजूद थे। यहीं से पांडवों के साथ कृष्ण की घनिष्ठता का आरंभ हुआ।
पांडव अर्जुन ने मत्स्य भेदकर द्रौपदी को प्राप्त कर लिया और इस प्रकार अपनी धनुर्विद्या का कौशल अनेक देश के राजाओं के समक्ष प्रकट कर दिया। अर्जुन की इस कौशलता से श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। वहीं उन्होंने पांडवों से मित्रता बढ़ाई और वनवास की समाप्ति के बाद वे पांडवों के साथ हस्तिनापुर पहुंचे। कुरुराज धृतराष्ट्र ने पांडवों को इंद्रप्रस्थ के आस-पास का प्रदेश दे रखा था। पांडवों ने कृष्ण के द्वारका निर्माण संबंधी अनुभव का लाभ उठाया। उनकी सहायता से उन्होंने भी जंगल के एक भाग को साफ कराकर इंद्रप्रस्थ नगर को अच्छे और सुंदर ढंग से बसाया। इसके बाद कृष्ण द्वारका लौट गए। फिर एक दिन अर्जुन तीर्थाटन के दौरान द्वारिका पहुंच गए। वहां कृष्ण की बहन सुभद्रा को देखकर वे मोहित हो गए। कृष्‍ण ने दोनों का विवाह करा दिया और इस तरह कृष्ण की अर्जुन से प्रगाढ़ मित्रता हो गई।

जरासंध का वध : 

इंद्रप्रस्थ के निर्माण के बाद युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया और आवश्यक परामर्श के लिए कृष्ण को बुलाया। कृष्ण इंद्रप्रस्थ आए और उन्होंने राजसूय यज्ञ के आयोजन का समर्थन किया। लेकिन उन्होंने युधिष्ठिर से कहा कि पहले अत्याचारी राजाओं और उनकी सत्ता को नष्ट किया जाए तभी राजसूय यज्ञ का महत्व रहेगा और देश-विदेश में प्रसिद्धि होगी। युधिष्ठिर ने कृष्ण के इस सुझाव को स्वीकार कर लिया, तब कृष्ण ने युधिष्ठिर को सबसे पहले जरासंध पर चढ़ाई करने की सलाह दी।

इसके बाद भीम और अर्जुन के साथ कृष्ण मगध रवाना हुए और कुछ समय बाद मगध की राजधानी गिरिब्रज पहुंच गए। कृष्ण की नीति सफल हुई और उन्होंने भीम द्वारा मल्लयुद्ध में जरासंध का वध करवा डाला। जरासंध की मृत्यु के बाद कृष्ण ने उसके पुत्र सहदेव को मगध का राजा बनाया। फिर उन्होंने गिरिब्रज के बंदीगृह में बंद सभी राजाओं को मुक्त किया और इस प्रकार कृष्ण ने जरासंध जैसे क्रूर शासक का अंत कर बंदी राजाओं को उनका राज्य पुन: लौटाकर खूब यश पाया। जरासंध के वध के बाद अन्य सभी क्रूर शासक भयभीत हो चले थे। पांडवों ने सभी को झुकने पर विवश कर दिया और इस तरह इंद्रप्रस्थ का राज्य विस्तार हुआ।

इसके बाद युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ में युधिष्ठिर ने भगवान वेद व्यास, भारद्वाज, सुनत्तु, गौतम, असित, वशिष्ठ, च्यवन, कण्डव, मैत्रेय, कवष, जित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिन, क्रतु, पैल, पाराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतहोत्र, मधुद्वंदा, वीरसेन, अकृतब्रण आदि सभी को आमंत्रित किया। इसके अलावा सभी देशों के राजाधिराज को भी बुलाया गया।

इसी यज्ञ में कृष्ण का शत्रु और जरासंध का मित्र शिशुपाल भी आया हुआ था, जो कृष्‍ण की पत्नी रुक्मिणी के भाई का मित्र था और जो रुक्मिणी से विवाह करना चाहता था। यह कृष्ण की दूसरी बुआ का पुत्र था इस नाते यह कृष्‍ण का भाई भी था। अपनी बुआ को श्रीकृष्ण ने उसके 100 अपराधों को क्षमा करने का वचन दिया था। इसी यज्ञ में कृष्ण का उसने 100वीं बार अपमान किया जिसके चलते भरी यज्ञ सभा में कृष्ण ने उसका वध कर दिया।

महाभारत : 

द्वारिका में रहकर कृष्ण ने धर्म, राजनी‍ति, नीति आदि के कई पाठ पढ़ाए और धर्म-कर्म का प्रचार किया, लेकिन वे कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध को नहीं रोक पाए और अंतत: महाभारत में वे अर्जुन के सारथी बने। उनके जीवन की ये सबसे बड़ी घटना थी। कृष्ण की महाभारत में भी बहुत बड़ी भूमिका थी। कृष्ण की बहन सुभद्रा अर्जुन की पत्नी थीं। श्रीकृष्ण ने ही युद्ध से पहले अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था।

महाभारत युद्ध को पांडवों के पक्ष में करने के लिए कृष्‍ण को युद्ध के पूर्व कई तरह के छल, बल और नीति का उपयोग करना पड़ा। अंतत: उनकी नीति के चलते ही पांडवों ने युद्ध जीत लिया। इस युद्ध में भारी संख्या में लोग मारे गए। सभी कौरवों की लाश पर विलाप करते हुए गांधारी ने शाप दिया कि- 'हे कृष्‍ण, तुम्हारे कुल का नाश हो जाए।'

कृष्ण का निर्वाण : 

भगवान कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ था। उनका बचपन गोकुल, वृंदावन, नंदगाव, बरसाना आदि जगहों पर बीता। अपने मामा कंस का वध करने के बाद उन्होंने अपने माता-पिता को कंस के कारागार से मुक्त कराया और फिर जनता के अनुरोध पर मथुरा का राजभार संभाला। कंस के मारे जाने के बाद कंस का ससुर जरासंध कृष्ण का कट्टर शत्रु बन गया। जरासंध के कारण कालयवन मारा गया। उसके बाद कृष्ण ने द्वारिका में अपना निवास स्थान बनाया और वहीं रहकर उन्होंने महाभारत युद्ध में भाग लिया। महाभारत युद्ध के बाद कृष्ण ने 36 वर्ष तक द्वारिका में राज्य किया।

'ततस्ते यादवास्सर्वे रथानारुह्य शीघ्रगान, प्रभासं प्रययुस्सार्ध कृष्णरामादिमिर्द्विज। प्रभास समनुप्राप्ता कुकुरांधक वृष्णय: चक्रुस्तव महापानं वसुदेवेन नोदिता:, पिवतां तत्र चैतेषां संघर्षेण परस्परम्, अतिवादेन्धनोजज्ञे कलहाग्नि: क्षयावह:'। -विष्णु पुराण

धर्म के विरुद्ध आचरण करने के दुष्परिणामस्वरूप अंत में दुर्योधन आदि मारे गए और कौरव वंश का विनाश हो गया। महाभारत युद्ध के पश्चात सांत्वना देने के उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण गांधारी के पास गए। गांधारी अपने 100 पुत्रों की मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थीं। भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दिया कि तुम्हारे कारण जिस प्रकार से मेरे 100 पुत्रों का नाश हुआ है, उसी प्रकार तुम्हारे वंश का भी आपस में एक-दूसरे को मारने के कारण नाश हो जाएगा। भगवान श्रीकृष्ण ने माता गांधारी के उस शाप को पूर्ण करने के लिए अपने कुल के यादवों की मति फेर दी। इसका यह मतलब नहीं कि उन्होंने यदुओं के वंश के नाश का शाप दिया था। सिर्फ कृष्ण वंश को शाप था।

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। कृष्ण द्वारिका में ही रहते थे। पांडव भी युधिष्ठिर को राज्य सौंपकर जंगल चले गए थे। एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। गांधारी के बाद इस पर दुर्वासा ऋषि ने भी शाप दे दिया कि तुम्हारे वंश का नाश हो जाए।

उनके शाप के प्रभाव से कृष्ण के सभी यदुवंशी भयभीत हो गए। इस भय के चलते ही एक दिन कृष्ण की आज्ञा से वे सभी एक यदु पर्व पर सोमनाथ के पास स्थित प्रभास क्षेत्र में आ गए। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले होकर एक-दूसरे को मारने लगे। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर कुछ ही जीवित बचे रह गए।
एक कथा के अनुसार संयाग से साम्ब के पेट से निकले मूसल को जब भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से रगड़ा गया था तो उसके चूर्ण को इसी तीर्थ के तट पर फेंका गया था जिससे उत्पन्न हुई झाड़ियों को यादवों ने एक-दूसरे को मारना शुरू किया था। ऋषियों के श्राप से उत्पन्न हुई इन्हीं झाड़ियों ने तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों का काम किया ओर सारे प्रमुख यदुवंशियों का यहां विनाश हुआ। महाभारत के मौसल पर्व में इस युद्ध का रोमांचकारी विवरण है। सारे यादव प्रमुख इस गृहयुद्ध में मारे गए।

बचे लोगों ने कृष्ण के कहने के अनुसार द्वारका छोड़ दी और हस्तिनापुर की शरण ली। यादवों और उनके भौज्य गणराज्यों का अंत होते ही कृष्ण की बसाई द्वारका सागर में डूब गई।

भगवान कृष्ण इसी प्रभाव क्षेत्र में अपने कुल का नाश देखकर बहुत व्यथित हुए। वे वहीं रहने लगे। उनसे मिलने कभी-कभार युधिष्ठिर आते थे। एक दिन वे इसी प्रभाव क्षेत्र के वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे योगनिद्रा में लेटे थे, तभी 'जरा' नामक एक बहेलिए ने भूलवश उन्हें हिरण समझकर विषयुक्त बाण चला दिया, जो उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्रीकृष्ण ने इसी को बहाना बनाकर देह त्याग दी। महाभारत युद्ध के ठीक 36 वर्ष बाद उन्होंने अपनी देह इसी क्षेत्र में त्याग दी थी। महाभारत का युद्ध हुआ था, तब वे लगभग 56 वर्ष के थे। उनका जन्म 3112 ईसा पूर्व हुआ था। इस मान से 3020 ईसा पूर्व उन्होंने 92 वर्ष की उम्र में देह त्याग दी थी।

अंत में कृष्ण के प्रपौत्र वज्र अथवा वज्रनाभ द्वारिका के यदुवंश के अंतिम शासक थे, जो यदुओं की आपसी लड़ाई में जीवित बच गए थे। द्वारिका के समुद्र में डूबने पर अर्जुन द्वारिका गए और वज्र तथा शेष बची यादव महिलाओं को हस्तिनापुर ले गए। कृष्ण के प्रपौत्र वज्र को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया। वज्रनाभ के नाम से ही मथुरा क्षेत्र को ब्रजमंडल कहा जाता है।

श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़ी रोचक घटनाएं

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Thursday, December 3, 2015

अर्जुनविषादयोग

अर्जुनविषादयोग

धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥

भावार्थ : धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने
क्या किया?॥1॥

संजय उवाच
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌ ॥

भावार्थ : संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य
के पास जाकर यह वचन कहा॥2॥

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌ ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥

भावार्थ : हे आचार्य! आपके बुद्धिमान्‌ शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की
इस बड़ी भारी सेना को देखिए॥3॥

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌ ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌ ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥

भावार्थ : इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और
विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और
मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों
पुत्र- ये सभी महारथी हैं॥4-6॥

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥

भावार्थ : हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के
लिए मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ॥7॥

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥

भावार्थ : आप-द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही
अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा॥8॥

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥

भावार्थ : और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से

सुसज्जित और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं॥9॥
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्‌ ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्‌ ॥

भावार्थ : भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन
लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है॥10॥

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥

भावार्थ : इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म
पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें॥11॥

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान्‌ ॥

भावार्थ : कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च
स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया॥12॥

ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्‌ ॥

भावार्थ : इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे।
उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ॥13॥

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥

भावार्थ : इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी
अलौकिक शंख बजाए॥14॥

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥

भावार्थ : श्रीकृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन
ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया॥15॥

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥

भावार्थ : कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और
मणिपुष्पक नामक शंख बजाए॥16॥

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्‌ ॥

भावार्थ : श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय
सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु- इन सभी ने, हे
राजन्‌! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाए॥17-18॥

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्‌ ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्‌ ॥

भावार्थ : और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात आपके
पक्षवालों के हृदय विदीर्ण कर दिए॥19॥

अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग )

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्‌ कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ 
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।

अर्जुन उवाचः

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥


भावार्थ : हे राजन्‌! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंधियों को देखकर, उस
शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत! मेरे
रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए॥20-21॥

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्‌ ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥

भावार्थ : और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख
न लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा
रखिए॥22॥

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥

भावार्थ : दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आए हैं, इन युद्ध करने
वालों को मैं देखूँगा॥23॥

संजय उवाचः
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्‌ ॥
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्‌ ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्‌ समवेतान्‌ कुरूनिति ॥

भावार्थ : संजय बोले- हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा कहे अनुसार महाराज श्रीकृष्णचंद्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा कर इस प्रकार कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देख॥24-25॥

तत्रापश्यत्स्थितान्‌ पार्थः पितृनथ पितामहान्‌ ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥
श्वशुरान्‌ सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।

भावार्थ : इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा॥26 और 27वें का पूर्वार्ध॥

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्‌ बन्धूनवस्थितान्‌ ॥
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्‌ ।

भावार्थ : उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले। ॥27वें का उत्तरार्ध और 28वें का पूर्वार्ध॥

(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन )

अर्जुन उवाच
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌ ॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है॥28वें का उत्तरार्ध और 29॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥

भावार्थ : हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ॥30॥

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥

भावार्थ : हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥31॥

न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥

भावार्थ : हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?॥32॥

येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥


भावार्थ : हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं॥33॥

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥ 

भावार्थ : गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं ॥34॥

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥


भावार्थ : हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?॥35॥

निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ हत्वैतानाततायिनः ॥ 

भावार्थ : हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा॥36॥

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌ ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ 

भावार्थ : अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?॥37॥

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्‌ ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌ ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन

भावार्थ : यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?॥38-39॥

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥ 

भावार्थ : कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है॥40॥

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥41॥

भावार्थ : हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है॥41॥

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥

भावार्थ : वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं॥42॥

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥

भावार्थ :  इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं॥43॥

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥

भावार्थ :  हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चितकाल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए हैं॥44॥

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌ ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥

भावार्थ :  हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं॥45॥

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्‌ ॥

भावार्थ :   यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा॥46॥

संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌ ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥

भावार्थ :  संजय बोले- रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए॥47॥



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